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मार्च, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बद्तमीज़ सुबह!

ऐसी भी क्या जिद्द होती है, परछाईयाँ जलाने की, ऐसा भी क्या डर, खोने का, कि दूसरी सच्चाइयाँ जला दीं, ऐसी भी क्या जल्दी, जो दस्तख़ दी, क़ि करवटें यतीम हो गयीं, नज़ाकत के मौसम शायद खत्म हैं और हम आँख फेरें तो, सर चढ़ बोलेंगे, यूँ नहीं की हम दुबक जाएंगे, फिर ये क्या की पीठ नजरें गढाएंगे, शाम शामत आएगी ज़ाहिर है, सच के मौसम बदलेंगे, पर ये दौर ही ऐसा है, बदतमीजी, बदलिहाजी, बदसलूकी, बदमाशी, बदमिजाजी, मौसम बन गए हैं, रोशनी अपना मतलब भूल गयी है, आँखे बंद करना अब सोना नहीं है इसलिए हुक्मरानों की चांदी है, फिर भी साँसे ज़िंदा हैं; सुबह को रात है बिन मौसम बरसात है, देख लेंगे हम या नहीं भी, यकीन की खेती आदत है इंतज़ार नहीं!

माँ भारत बेटी नदारत!

बांधने को खुँटे से मंगलसूत्र है,  रवायत बड़ी पेशेवर है, धूर्त है! देश भी माँ, धरती भी माँ, और माँ भी माँ,  किस को गाली दे रहे हैं सब सूरमाँ! सदियों से दूध् की ये ही कहानी है,  आँखों पे सूखता है कहते हैं पानी है! कल महिला दिन था, फ़िर आज़ महिला बिन है, दबी हैं, जो कचरे का ढेर बने हमारे समाज़ सारे ऐसा हमारी परंपरा से सीखने का आकार है, बल-बला-बलात्कार एक ही विचार है शायद कोई सपना साकार है! कल महिला दिवस था आज मन--मर्ज़ी है, साल भर के जख्म और एक दिन दर्ज़ी है! मर्द साल भर नोचते-खसोटते, बाँटते-काटते है, श्राद(Shraad) है शायद महिला दिवस मिठाई बाँटते है! आँख में पानी है क्योंकि माँ-बहन-नानी है, चलिये घर से बाहर जायें बड़ी आसानी है! आँखों का पानी है, बड़ी इसकी परेशानी है, सूख गया तो कहते हैं मर्द होने कि निशानी है! मर्द के दर्द कहिये, मर्द की जात कहिये, नज़ाकत कैसी बस गधे की लात कहिये! आँखों का पानी कहां गुम है, मर्ज़ी है या कोई हुकुम है, इज़्जत मोटी रकम है, इसलिये लूटने का चलन है! बंद कमरों के बाहर मुस्टंडे तैनान हैं , आज महिला दिवस है, रोज़ क्यों नहीं होता