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नवंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भीड़ की रीड!

सवाल?  क्यों लोग लगे रहते है दिन भरने में,  रोज़-रोज़ वही करने में जिसमें जी नहीं? ये कहते हुए कि ये ज़िंदगी का सच है,  गुजारे की demand - too much है? क्या उऩ्हें मजबूर करता है? अपने अंतर से दूर करता है? क्यों ये सवाल? क्यों वक्त के मारों के जख्म पर नमक छिड़क रहे हो मेरे भाई ? चल रहे हैं वही जिंदगी ने जो राह दिखाई , आप ने सपनों को रास्ता बना लिया , अपनी मुश्किलों का नाश्ता बना लिया , आईने के सामने खड़े होकर सिर्फ़ अपनी खूबसूरती या  उसकी कमी को परखने कि जगह , आपने सवाल पूछ लिये ? तो लो अब भुगतो , अब आपको जिंदगी मज़े से जीनी पड़ेगी , कभी आप भी परेशानियों से अपना सर खुजाएंगे , ( तेल क्यों नहीं लगाते हीरो ) पर फ़िर भी मुस्काराऐंगे , आपने अपने सपनों को पालना सीखा है , पर घर और स्कूल में उनको टालना सिखाते हैं , और जरूरतों का क्या बतायें , उसकी परिभाषा कहां से लायें , देखो तो , लाखों हवा खा कर भी जिंदा हैं ? सवाल लाख टके का है ? ताकत किसके हाथ में है ? " कौन कहता है कि चक्की में पिसे रहो ?" घर - बाहर , स्कूल , जाने

अंदाज़-ए-आतिशबाज़ी!

इस दीवाली के पटाखों को, कोई नयी गाली हो जाये, माँ-बहन की जगह राम-लखन की विवेचना की जाये! दीवाली आने वाली है,  ये आज की गाली है, मजहबी गुंगे क्या समझें,  क्यों कोई सवाली है? सीता को पूछे कोई कि कैसे राम निकले, सब के सब  कानों के अपने हराम निकले ! अक्ल गलियों मे जल रही है,  बेशर्मी हर दौर पल रही है, गरीबी एक जुंए का खेल है,  सच्चाई जाम में ढल रही है! कस के दो-चार गाली हो जाये,  अपनी भी दीवाली हो जाये, बड़े आये मुबारक कहने,  गीली पटाखे कि थाली हो जाये! :-P एक एक पटाखा मां-बहन की गाली है, आपकी फ़ुलझड़ी किसी कि बेहाली है सारे अनार किसी के रस्तों की दीवार, दीवाली मना रहे है या दिमागी बीमार? चल रही है चारों और अतीत की हम्माली, और हम पर ये इल्ज़ाम की दीवाली पर गाली!

इस दीवाली मीठे से बचिये . . .

एक महीन से कपड़े के अंदर छूपी हैं, मिठाईयाँ और तमाम बेशरम सच्चाईयां! अगर दम है तो नये सिरे से भी सीखो, पत्थर की लकीरें, दरारें भी होती हैं! परंपरा है बस इसलिये करते हैं, दिमाग की प्रोग्रामिंग(Programming) कहां करते हैं? रॉकेट हो गये सारे सपने, उम्मीदों को सुतली बम, धूल बनी सारी रंगोली, अब आगे क्या बोलें हम! एक दीवाली है और दो आपके कान हैं, आज तो बेहरा होना वरदान है! लगे हैं स ब दिन को सुलगाने में, यूँ हो रही हैं तमाम रातें‌ रोशन! आवाज़ें ईतनी कि बहरों के कान खुल जायें, फ़िर भी आपके कानों पर जूँ नहीं रेंगती! लड़ी पटाखों की और झड़ी अहमकों कि, बदसलूकी, बदनियती के मौसम बने हैं! कहते हैं देर होती है, अंधेर नहीं,  पर रोशनी ही गंदी हो तो क्या?