सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अप्रैल, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कशिश - ए- खुदकशी!

मौत कितनी आसान है, जी करता है खुदकशी कर लूँ! जिन्दगी विस्तार है  दो हाथों में नहीं समाती , मौत आसान है, बाँहों में भर लूँ जिन्दगी कितनी लाचार, कितनी मोहताज़ है मौत का हर तरफ राज़ है  मौत जिन्दगी का ताज है  जिन्दगी मोह है, मौत सन्यास जिन्दगी अंत है, मौत अनंत  मौत पर न कोई राशन है, न प्रतिबन्ध  जिन्दगी है, न ख़त्म होने वाली लाइन का द्वन्द जिन्दगी अमीर है, गरीब है बेमुश्किल खरीद है मौत आसानी से हासिल  जिन्दगी के बदले की चीज़ है  जिन्दगी, कमज़ोर दिल वालों के बस की बात नहीं  मौत का कोई मज़हब, कोई जात नहीं जिन्दगी जड़ है, झगड़ा, फसाद है  सबको एक जैसी मौत को दाद है  आखिर कहाँ पहुंचा हमारा उत्थान है  कि मौत आसान है, फिर भी, जिन्दगी के पीछे दौड़ता इंसान है जो जुल्मी है, पापी है, शैतान है  उसी का सम्मान है! सरल, सहज, समान, हर एक को एक ही दाम मौत आसान है, इमान है  बिन मांगे मिल जाये वो सामान है सच कहते है, घर कि मुर्गी दाल बराबर ! पर क्या करें, जिन्दगी लालच है  इसलिए इतनी बुरी हालत है  चल रही है मानवता भेड़ चाल जिन्दगी कहाँ है? सब का सव

सुबह हुयी क्या?

आपको पता नहीं!...पर आज भी सुबह हुई थी  भोर अभी भरी नहीं थी  और तारे अब भी सजग  पेड़ अभी भी सकुचे सिमटे  पंछी भी चुप यहाँ तक की रात को रास्ता किये डाल-डाल, पात-पात, उल्लू भी, एक अजनबी सी ख़ामोशी  समंदर के गर्जन को चीरती हुई वहीँ, कई फूलों की महक, सड़ते पत्तों और गीली जमीं के साथ  डेरा डाली हवा में चारों तरफ पहुँचती हुई, सारी प्रकृति भोर के इंतज़ार में थी ! आने वाला दिन  उम्मीद, सयमं और अजीब सा ठहराव  शायद इस डर में कि अपनी हलचल में कहीं आने वाला कल न खो जाये  न जाने कितने ऐसे दिन शहरों के शोर में गुम हैं. (जिददू कृष्णमूर्ति की सुबह की चहल-कदमी और उस से जुड़े विचारों से अनुरचित)

रंग तस्वीrरों के . . . .

सफ़र है पर मंजिल नहीं, मोड़ आये तो क्या कीजे कामयाबी से क्या डरना, चलिए कुछ नया कीजे मुश्किल  कुछ  नहीं  नेक इरादों के काफिले चले, बड़े भले से लोग मिले यहाँ जोर से हवा चले, चलो जरा मौसम बदलें जागे  हो  अब जगे हो तो दिन पर नज़र रखना, मुस्तैद जरा रस्ते की खबर रखना चलिए सुबह को तमाम करिए  जिन्दगी को जाम करिए  करवटें रात की अच्छी  दिन में खुद को हैरान रखिये    या सोये से   अलसाये ख्वाब चाय की चुस्की लेते बैठे, मिल जाएँ कहीं तो हमसफ़र रखना या थोडा  खोये से  सोच की खोज है या क्या खोजें ये सोच रहे युहीं करवट बदली हैं, या नयी दिशाएं सोच रहे कदम बड़ने दो, जमीं खुद तुम्हारे पैर धुंड लेगी  दिशा दान सब भरम है रंग आपके करम है सफ़र फकीरी का ऐसा, न ख़ुशी न गम है नहीं तो फुर्रर्रर, हवा के साथ हो लेना  उडने का वक्त है पंख फैलाओ, आगे की क्या सोच जमीं पर कैसे होगी नए आसमानों की खोज जरुरी नहीं हर कदम के निशां हों तस्वीर बनते जरा वक्त लगेगा, रंगों की खबर रखना लकीरें है वक्त की गुलाम अपने चलने को असर रखना जागते रहो  जिन्दगी आदत न बन जाये ये डर है  वक्त करवट बद

मज़बुर हिंसा?

कहाँ पहुँच गए है हम  आज हिंसा भी मजबूर है , चारों तरफ कारणों से घिरी हुई खुद ही बीमारी और खुद ही तीमारी और अब जब पूरी आबादी को लग गयी है, तो महामारी  और डॉक्टर सारे अपनी सफेदी का शिकार,  लाल रंग को सिर्फ बहने देते हैं कहने नहीं, और खुद कि जमीं पर रहने नहीं, कहाँ जाये अब वो जमीं जिस कि हरियाली पेड़ों  से छंट कर,  जेबों मै बंट रही है पहले जमीन फटती थी,  तो सीता समाती थी,  अब पूरी कवायत है कमला, मासे, रूपी, जूरी, नर्मदा, वेणु, राजू, मंगता हिंसा से, हिंसा को, हिंसा द्वारा लोकतंत्र सिर्फ एक सवाल बचता है, जिनके पास घर है वो बेघर लोगों को बेदखल क्यों कर रहे हैं ? और जिनके पास कुछ नहीं,   वो किस जमीं को जान दे रहे हैं ? (दंतेवाडा के जंगलो मै आदिवासिओं की अपनी जमीं से जुड़े रहने की कोशिशों को समर्पित)

लाश की आस!

                                  अब क्या तलाश है तैयार होती एक नयी लाश है वक़्त खामोश है, या इतना कुछ कह रहा कि कुछ हाथ नहीं आता कुछ बदलने वाला है, कुछ पुराना होता है, अतीत जमीं होता है, नया उगता है पर इस लम्हा वो दौरान है कुछ नज़र नहीं आता इस लिए इरादा परेशान है अब जाने दीजिए अगर कोई काश है नया होने को एक नयी लाश है !!