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मज़बुर हिंसा?

कहाँ पहुँच गए है हम 
आज हिंसा भी मजबूर है ,
चारों तरफ कारणों से घिरी हुई
खुद ही बीमारी और खुद ही तीमारी
और अब

जब पूरी आबादी को लग गयी है, तो महामारी 



और डॉक्टर सारे अपनी सफेदी का शिकार, 
लाल रंग को सिर्फ बहने देते हैं
कहने नहीं,
और खुद कि जमीं पर रहने नहीं,

कहाँ जाये अब वो जमीं


जिस कि हरियाली पेड़ों से छंट कर, 
जेबों मै बंट रही है
पहले जमीन फटती थी, 
तो
सीता समाती थी, 
अब पूरी कवायत है
कमला, मासे, रूपी, जूरी, नर्मदा, वेणु, राजू, मंगता
हिंसा से, हिंसा को, हिंसा द्वारा



लोकतंत्र
सिर्फ एक सवाल बचता है,
जिनके पास घर है

वो बेघर लोगों को बेदखल क्यों कर रहे हैं ?
और जिनके पास कुछ नहीं,

 वो किस जमीं को जान दे रहे हैं ?
(दंतेवाडा के जंगलो मै आदिवासिओं की अपनी जमीं से जुड़े रहने की कोशिशों को समर्पित)

टिप्पणियाँ

  1. जिनके पास घर है वो बेघर लोगों को बेदखल क्यों कर रहे हैं
    और जिनके पास कुछ नहीं वो किस जमीं को जान दे रहे हैं

    -बहुत दुखद और अफसोसजनक घटना रही!

    जवाब देंहटाएं
  2. Wow! Amazingly you put realities in words,
    words we never want to talk, share and hear.
    Very well written!!

    जवाब देंहटाएं

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