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फ़रवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तलाश के खोये!

हमें भी शौक है जिंदगी दांव पर लगाने का कोई काम पर इस कदर मुश्किल नहीं मिलता अजब है जिंदगी फ़िर भी एक शिकायत है आँसू पोंछते है साथ कोई रोये नहीं मिलता जिंदगी ने कुछ यूँ भी मंजर दिखाये हैं, सुख बाँटता है जो, वो ही सुखी नहीं मिलता अब शहरों में मेले भी ऐसे लगते हैं, हर कोई मिलता है कोई खोया नहीं मिलता भीड़ में कई पहचाने चेहरे हैं, अकेले कोई पहचाना नहीं मिलता! सहर होती है शहर में, रात कितनी बदनाम हो, सुबह भूला कोई भी किसी शाम नहीं मिलता हर कोई वही चलता है जिसका चलन है! अपने रस्तों का कोई जिम्मेदार नहीं मिलता किसको पूछे कौन बताये, ख्वाब हमारे क्या घर जायें बहुत हलचल है वहां अब कोई सोया नहीं मिलता

जो हम नहीं होते!

चलते हैं उस रस्ते जो खत्म नहीं होते चोट लगती है हमें पर जख्म नहीं होते मरे महबूब की तमाम मुश्किलें  हम से हैं हम से ही कहते हैं काश हम नहीं होते अपनी आदतों से मज़बूर वो अब नहीं होते रात - दिन , शाम - ओ - सहर अब हम नहीं होते नींद में तड़पकर हाथ थाम लेते हैं , ख्वाबों में उनके , क्या हम नहीं होते ? हम में बदलने को रोज़ाना नयी चीज़ें हैं तमाम जरुरत पड़ती है जब उनको हम कम नहीं होते कितनी गर्दिशें‌ झेली हैं तो खुद को समझा है और कोई होता तो बेशक हम नहीं‌ होते ? मतलब निकलता है तब तक साथ सबका है मुश्किलों‌ में‌ तो गोया , हम हम नहीं होते !

कुछ कुछ होता है!

सूरज खिलता है या की दिन पिघलता है, जलता है इरादा या की हाथ मलता है!  कुछ छुपा सा है, कुछ जगा सा है, कुछ उगा से है, कुछ सुबह सा है! कुछ इरादों सा, कुछ अधुरे वादों सा, कुछ उम्मीदों पे खरा, सच ज़रा ज़रा! कुछ मुस्कान, कुछ आसान, कुछ अंजान कुछ अपना सा लगे है और कुछ मेहमान! कुछ पूरा सा, कुछ अधूरा सा, कुछ जमूरा सा, आपकी नज़र है कुछ, कुछ सपना हुआ पूरा सा! कुछ रास्ते सा, कुछ मकाम तक, अजनबी है रोज, हररोज पहचान कर! कुछ बेबाक सच, कुछ बेखौफ़ कोशिश, कुछ हौसला अफ़ज़ाई कुछ हसीन कशिश!

फ़र्क पड़ता है!

एक मौका जुड़ने का उन सरहदों पर जहाँ सेना नहीं , पर सीमायें बहुत हैं , मानकों की , मान्यताओं‌ की सभ्यता की कश्तियाँ हैं , और मांझी भी , सब के सब तैयार , तत्पर और लाचार अपनी तस्वीरों के , तमाम जंजीरों के कुछ जो नज़र ही नहीं आती फ़िर भी न किसी के हाथ खड़े न पाँव मुड़े , न सर झुके कि बस आदत है फ़रक लाने कि हिम्मत ये भी है ! काश आप को खबर होती आप जीत रहे हैं , और ये जंग है , फ़र्क पैदा होता है बिना बात मुस्कराने से सर हाथ किसी बहाने से बस होने से , मौज़ूद कि कोई अकेला नहीं है , जो है , वही अपना है , और आप हैं , वहाँ और फ़र्क पड़ता है ! (उन आंगनवाड़ी चलाने वाली हज़ारों महिलाओं को समर्पित जो एक पुरे सिस्टम के बोझ और बेकदरी के बावज़ूद रोज़ लाखों मुस्कराहटों को सींचती हैं, जाने अनजाने वो एक मुकम्म्ल फ़र्क पैदा करने की जिम्मेदार हैं। पटना, बिहार में १०० आंगनवाड़ी चलाने वाली दीदीयों‌के साथ खेल से मेल/Play for Peace की सोच और प्रक्रिया बांटने के बाद ये समझ आया कि किस तरह हमारी व्यवस्था उल्टी चाल चलती है। ये हमारे समझ का व्यवस्था का संकुच