उन
सरहदों पर
जहाँ
सेना नहीं, पर
सभ्यता
की
कश्तियाँ
हैं, और
मांझी भी,
सब
के सब
तैयार,
तत्पर और
लाचार
अपनी
तस्वीरों के, तमाम
जंजीरों के
कुछ
जो नज़र ही नहीं आती
न
पाँव मुड़े, न
सर झुके
कि
बस आदत है
फ़रक
लाने कि
हिम्मत
ये भी है!
काश
आप को खबर होती
आप
जीत रहे हैं,
और
ये जंग है,
बिना
बात मुस्कराने से
सर
हाथ किसी बहाने से
बस
होने से,
कि
कोई अकेला नहीं है,
जो
है, वही
अपना है,
और
आप हैं,
वहाँ
और
फ़र्क पड़ता है!
(उन आंगनवाड़ी चलाने वाली हज़ारों महिलाओं को समर्पित जो एक पुरे सिस्टम के बोझ और बेकदरी के बावज़ूद रोज़ लाखों मुस्कराहटों को सींचती हैं, जाने अनजाने वो एक मुकम्म्ल फ़र्क पैदा करने की जिम्मेदार हैं। पटना, बिहार में १०० आंगनवाड़ी चलाने वाली दीदीयोंके साथ खेल से मेल/Play for Peace की सोच और प्रक्रिया बांटने के बाद ये समझ आया कि किस तरह हमारी व्यवस्था उल्टी चाल चलती है। ये हमारे समझ का व्यवस्था का संकुचित दायरा है कि जो समय बच्चों के सीखने का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है, (३-५ साल) उसे सबसे कम जरूरी समझा जाता है!)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें