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अक्तूबर, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पूजा अर्चना प्रार्थना!

अपने से लड़ाई में हारना नामुमकिन है, बस एक शर्त की साथ अपना देना होगा! और ये आसान काम नहीं है,  जो हिसाब दिख रहा है  वो दुनिया की वही(खाता) है! ऐसा नहीं करते  वैसा नहीं करते लड़की हो, अकेली हो, पर होना नहीं चाहिए, बेटी बनो, बहन, बीबी और मां, इसके अलावा और कुछ कहां? रिश्ते बनाने, मनाने, संभालने और झेलने,  यही तो आदर्श है, मर्दानगी का यही फलसफा,  यही विमर्श है! अपनी सोचना खुदगर्जी है, सावधान! पूछो सवाल इस सोच का कौन दर्जी है? आज़ाद वो  जिसकी सोच मर्ज़ी है!. और कोई लड़की  अपनी मर्जी हो  ये तो खतरा है, ऐसी आजादी पर पहरा चौतरफा है, बिच, चुड़ैल, डायन, त्रिया,  कलंकिनी, कुलक्षिणी,  और अगर शरीफ़ है तो "सिर्फ अपना सोचती है" ये दुनिया है! जिसमें लड़की अपनी जगह खोजती है! होशियार! अपने से जो लड़ाई है, वो इस दुनिया की बनाई है, वो सोच, वो आदत,  एहसास–ए–कमतरी, शक सारे,  गलत–सही में क्यों सारी नपाई है? सारी गुनाहगिरी, इस दुनिया की बनाई, बताई है! मत लड़िए, बस हर दिन, हर लम्हा अपना साथ दीजिए. (पितृसता, ग्लोबलाइजेशन और तंग सोच की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए हर दिन के महिला संघर्ष को समर्पि

नाकाफियत!

क्यों उन रास्तों से गुजरते हैं जो अपनी नजर में चढ़ते उतरते हैं? कहां पहुंचेंगे? सही जा रहे हैं क्या? भटक गए तो? अटक गए अगर? साथ मिलेगा क्या? कैसे होंगे लोग? उस डगर, गांव, शहर? अगर–मगर, अगर–मगर, अगर–मगर दम फूल गई, क्या भूल हुई? हार गए क्या? कमजोर हैं? नहीं जाएंगे ही! पहुंच कर दम लेंगे! वो लोग कर लिए तो! हम क्या कम हैं? हर मंजिल सांतवा आसमान है, कामयाबी,  अगली लड़ाई के लिए, हौंसला–कमाई, कहीं पहुंच जाना जैसे जंग की फतह है! ये सोच कितनी सतह है! आख़िर किसका जोर है? जहन में, जिस्म में, कितना शोर है? देखो जरा आस–पास,  पेड़, पानी, जमीन, जंगल खड़े हैं सो खड़े हैं, पड़े हैं सो पड़े हैं बहते बहे हैं, चलते चले हैं, फिर भी पल–पल बदल रहे हैं, हर लम्हा संभल रहे हैं, खुद ही रास्ता हैं, और अपना ही मकाम हैं, कुछ साबित नहीं करना, न खुद को न दुनिया को! पूरे नहीं है,  न मुकम्मल हैं, पर कुछ कम भी नहीं है , जो हैं बस वही हैं! इसमें कहां कुछ गलत–सही है? नाकाफियत – एक नकारात्मक एहसास, शिक्षा और संस्कार द्वारा पैदा की गई बीमारी जो लोगों के जहन में ये सोच डालती है कि आपमें कोई कमी है और आप हमेशा बड़े और अपने से

मूरख हम–तुम!

कुछ ऐसी सुबह थी,  बेवजह थी बस होने के लिए न कोई डर, न फिकर, निकल पड़े बादल, कोहरा कब्जा करने! मर्द कहीं के! सदियों के अनुभव क्यों अकल नहीं बनते? जो विरासत में मिली वो नकल क्यों बनते? सुबह ढकी हुई है, सूरज सफेद है, फिर भी कोई कमी नहीं उनको, अपने रास्ते चल रहे हैं, जाने और आने में फर्क कहां है, वही जगह है, सब आपकी नजर कहां है? सब कुछ शांत, निश्चल, पाक – साफ़ जब तक हम काम नहीं बनते, एक दूसरे के लिए सामान नहीं बनते, घटते–बढ़ते, कम –ज्यादा! पेड़, पौधे, रास्ते ओस, जाले, सब बेवजह हैं, उनको उनका होना  मुकम्मल है! ये बस इंसान है मुरख जिसको आज– कल है!