कुछ ऐसी सुबह थी,
बेवजह थी
बस होने के लिए
न कोई डर, न फिकर,
निकल पड़े बादल, कोहरा
कब्जा करने!
मर्द कहीं के!
सदियों के अनुभव क्यों
अकल नहीं बनते?
जो विरासत में मिली
वो नकल क्यों बनते?
सुबह ढकी हुई है,
सूरज सफेद है,
फिर भी कोई कमी नहीं उनको,
अपने रास्ते चल रहे हैं,
जाने और आने में फर्क कहां है,
वही जगह है, सब
आपकी नजर कहां है?
सब कुछ शांत, निश्चल,
पाक – साफ़
जब तक हम काम नहीं बनते,
एक दूसरे के लिए
सामान नहीं बनते,
घटते–बढ़ते,
कम –ज्यादा!
पेड़, पौधे, रास्ते
ओस, जाले,
सब बेवजह हैं,
उनको उनका होना
मुकम्मल है!
ये बस इंसान है मुरख
जिसको आज– कल है!
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