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मई, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक दो तीन. . . चौदह,पन्दरह

--> बचपन के तेरह , अल्हड़पन के पांच जवानी के छह – आठ और दीवानगी के पन्द्रह कभी सोचा था  ? दीवानगी सबसे काबिल साबित होगी  ! हाथ होगी  , साथ रहेगी  , मुश्किलो  की बात रहेगी , और मुश्किलो को मात रहेगी एक उम्र पीछे छोड दी  , बचपन , अल्हड़्पन और जवानी  , नहीं कह सकते  , हार मान गये  , पर ये जरुर भान गये  , जान गये  , दाल कभी कभी गल सकती है  , जल सकती है , पर पल नहीं सकती या फिर युँ कहिये , कि सब ने अपनी जगह ढ़ुंढ ली  , बचपन आता है  , टोह लेने  , खेल जाता है , तु - तु , मैं - मैं , अड़ जाता है कभी जिद्द् पे  , जाओ कट्टी ! निराश होने कि बात नहीं  , जवानी भी तो ताक लगाये बैठी है  ,  मन ही मन कहती है  , “ मिठ्ठी - मिठ्ठी " अल्हड़्पन भी कुछ कम नहीं सताता  , अपनी धुन में आ जाये तो उसे कुछ नहीं भाता  , मुँह फ़ुला , और कुछ नहीं बताता  , चॆहरे के सामने पीठ होती है  , ये उमर ही ऐसी ढ़ीट होती है  , और चंचल  , पाँच मिनिट एक युग होता है  , समय हाथ से फ़िसलता होता है  , नज़र फ़िसली  , द्र्श्य बदला  , हाँफ़ते - हाँफ

कुछ हुआ होगा

हमारे न होने को वो आराम कहते हैं, खामोश हुं तो उसको शाम कहते हैं अपनी परेशानियों को मेरा नाम कहते हैं जिक्र आये तो बस ' ह राम ' कहते हैं हमसे बरबाद होते हैं औरों से आबाद इल्म न था यूँ होंगे यार मेरे हालात किस्मत से यार मेरे रकीब बनते हैं क्या मुश्किल है जो मेरे करीब बनते हैं कहने को तो दोनो खासे शरीफ़ बनते हैं हाथ फ़ैलानें से कहां कोई फ़कीर बनते हैं नज़दीकियों से उनकी मेंरे नसीब बनते हैं दुरियों से उनकी हम गरीब बनते हैं अपने ही इरादों के हम कहां काबिल 'कहने को' दुनिया है, पर 'कहां गालिब' तन्हाइयों के मौसम हैं तन्हाइयों के सवाल मेरा हाल पुछते है , मेरे हालात दिल मे जो है वो ही बयान करते हैं हम कहां लम्हों को सामान करते हैं जो ज़जबात है वही अरमान करते हैं  जिंदगी जो उसी को जान करते हैं हम फ़रमाते हैं उनको लगता है भरमाते हैं हासिल ऐसे लम्हे भी जब वो शर्माते हैं मनमाफ़िक हालात न हो तो गरमाते हैं मेरा मज़हब है जब मेरे करीब आते हैं

आते जाते हालाते

कुछ नज़दीकियां हैं जिनको मंजुर हम नहीं यार हैं पर यार के कमज़ोर हम नहीं लगता है लम्हॊ को हम रास नहीं आते उम्र हो गयी, अब वो पास नहीं आते बहकने का अब सारा जिम्मा हमारा है उनके हाथॊ में, अब वो जाम नहीं आते नब्ज़ देख, अब भी हाल जान लेते हैं क्या करें हम ? जो उनके हाथ नहीं आते यकीं को कुछ कम हो गये वादे हमारे दायरऒ के बाहर अब, इरादे नहीं आते महफ़िल में अब भी शुन्य का जिक्र आता है कैसे कहें अब गिनतियॊ में हम नहीं आते।

जाने दो . . !

हाथ खडे करने और जाने दो के बीच , लकीर है, या फ़ांसले , या बस शब्दों के कुछ चौंचले नहीं हो सकता असंभव, नामुमकिन ये रास्ते कहां जाते हैं ? कहां जा सकते हैं ? मेरे बस कि बात नही! कुछ भी मेरे हाथ नहीं! हाथ खड़े करुं या जाने दुं ? अब कुछ नही हो सकता ! मेरी किस्मत ही ऐसी है ! ये तो एक मकाम है , मकाम ? जहां रास्ते खत्म होते हैं, रुक जाते हैं , हाथ खड़े होते हैं , और सर झुक जाते हैं दुनिया अंगुठा दिखती है / दिखाती है और ऊंगलियां खुद कि , खुद को ही इशारा करती हैं . . . . . . . . . . .  जाने दो , मेरे बस की बात नही ! रुकावट के लिये खेद है मकाम, ये नहीं !? एक रास्ता खत्म हुआ और सफ़र ? मुसाफ़िर है , रास्तों का मुंतज़िर नही  पीछे पलटना , हर दम लौटना नहीं , मुड़ना भी हो सकता है नीचे जाते रास्तों का संकेत उड़ना भी हो सकता है , संभावनायें संमदर हैं जाने दो . . ! आप तैयार हैं ? या आपकी कमर पर /उमर पर . . . आपके खड़े हाथों का भार है ? [हार मानने (Giving up)और हालात समझ कर अपने कदम पीछे खींचने(Letting go) के बीच छुपे अंतर समझने की कोशिश, जाने दीजिये!