--> बचपन के तेरह , अल्हड़पन के पांच जवानी के छह – आठ और दीवानगी के पन्द्रह कभी सोचा था ? दीवानगी सबसे काबिल साबित होगी ! हाथ होगी , साथ रहेगी , मुश्किलो की बात रहेगी , और मुश्किलो को मात रहेगी एक उम्र पीछे छोड दी , बचपन , अल्हड़्पन और जवानी , नहीं कह सकते , हार मान गये , पर ये जरुर भान गये , जान गये , दाल कभी कभी गल सकती है , जल सकती है , पर पल नहीं सकती या फिर युँ कहिये , कि सब ने अपनी जगह ढ़ुंढ ली , बचपन आता है , टोह लेने , खेल जाता है , तु - तु , मैं - मैं , अड़ जाता है कभी जिद्द् पे , जाओ कट्टी ! निराश होने कि बात नहीं , जवानी भी तो ताक लगाये बैठी है , मन ही मन कहती है , “ मिठ्ठी - मिठ्ठी " अल्हड़्पन भी कुछ कम नहीं सताता , अपनी धुन में आ जाये तो उसे कुछ नहीं भाता , मुँह फ़ुला , और कुछ नहीं बताता , चॆहरे के सामने पीठ होती है , ये उमर ही ऐसी ढ़ीट होती है , और चंचल , पाँच मिनिट एक युग होता है , समय हाथ से फ़िसलता होता है , नज़र फ़िसली , द्र्श्य बदला , हाँफ़ते - हाँफ
अकेले हर एक अधूरा।पूरा होने के लिए जुड़ना पड़ता है, और जुड़ने के लिए अपने अँधेरे और रोशनी बांटनी पड़ती है।कोई बात अनकही न रह जाये!और जब आप हर पल बदल रहे हैं तो कितनी बातें अनकही रह जायेंगी और आप अधूरे।बस ये मेरी छोटी सी आलसी कोशिश है अपना अधूरापन बांटने की, थोड़ा मैं पूरा होता हूँ थोड़ा आप भी हो जाइये।