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जुलाई, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सौदे सफ़र के!

अपने मज़हब के हम यूँ ही यकीं हो गये, संज़ीदगी के अपनी ही शौकिन हो गये, आसमां अपने सारे जमीन हो गये दिल में डुबो हाथ, देखिये रंगीं हो गये हाथ रंगने को मिट्टी बहुत है, फिर भी लोग खून लाल करते हैं मौत कोई बीमारी नहीं है, काहे फ़िर मुर्ख इलाज़ करते हैं आसमां क्यों लोगोँ के मज़हब बनते हैं, क्यों गुमराह लोग रास्तों को करते हैं अपने ही हाथ आते मुकरते हैं, क्यों सफ़र छोटा करने को कुतरते हैं रास्ते के कंकड़ सब, मील का पत्थर हुए, जो रुक गये उनके सारे घर हुए! पर मुसाफ़िर इस हलचल से अंजान है, सारे घरों का सराय नाम है !  कहने को तो दुनिया सराय है,   समय रहते आये तो चाय है,  जिद्द है आपकी घर बनाए हैं,  घांस को गधा है कि गाय है! मान लो, जान लो, पहचान लो, कोशिश सबकी यही की सच को आसान लो पर दो पल बदलती दुनिया में, मुमकिन नहीं कि आज को कल मान लो!

अपवादी आवाज़ें

एक और अज़नबी रात सिरहाने खड़ी है, एक और नामुराद दिन मुंह बायें खड़ा है, ना कोई उम्मीद नाउम्मीद हुई है, ना कोई संजीदगी बेगुमां कोई तकलीफ़ अभी तक उदास है, प्यास अभी भी मायुस नही हुई, ना दर्द गुमराह हुए हैं एक हंसी है जो कंहीं अकेली पड़ी है, होँसले बेफ़िकरे खड़े हैं, रास्ते खुद को ही सब्र की दाद देते हैं और मोड़, बेचैनी में बढे हैं, कुलजमां सब वही है, क्या नया हो, जो कुछ गुजरा नहीं है, और क्या पुराना, पहचाने, सब अजनबी हैं कहने को कुछ नहीं है, गालिबन, जो लिखा वो सही है!

हालात

क्यों टूटे हुए हालात हैं, क्यों यतीम सवालात हैं मैं खुद को देख नहीं पा रहा, या मेरी पहचान बदल गयी है, या कोई हक़ीकत है, जो  खल गयी है,  ये आइनों की कोई साज़िश है , या मेरे पैरों के नीचे जमीन बदल गयी है, हर दिन मेरी करवटें मुझे बदल रही हैं, पंख तो उग आये हैं, पर आसमान नहीं नज़र आता, इस सफ़र का सामान गुम है, सच कहूँ, तो गुमसुम! और साथ किसका है, फ़ैंसले सारे मेरे हैं, फ़िर भी, तस्वीर के रंग मुझे छल रहे हैं, मैं रास्ता बदलता हुँ, या रास्ते मुझे बदल रहे हैं?

कल आज और कल!

आज को आने की जल्दी पड़ी थी ताक लगाये थी, जिद्द पर अड़ी थी सुबह सुबह अब पांव पसारे पड़ी है, हम को जगा दिया, खुद सोयी पड़ी है! आज को कल होने की जल्दी पड़ी थी कतार लगाये लम्हॊं की भीड़ खड़ी थी मुंह छूपा के कितने लम्हे युँ ही गुजर गये जिद्द में खड़े कुछ आने से ही मुकर गये! कल को आस्तीन से झाड़ बैठे हैं, किसको खबर,कहां इसमें सांप बैठे हैं देखते हैं 'आज' क्या तेवर दिखाता है, हम भी अपनी चादर नाप बैठे हैं! आज को आस्तीन से झाड़ के बैठे हैं, फ़िक्र कहां कि जाम आये, इल्जाम आये आईना साथ में और ताड़ लगाये बैठे है मुमकिन है, कल कातिलॊं में नाम आये! आज़ को आस्तीन से झाड़ के बैठे हैं, कल के पन्ने अब पलटते हैं, कब कहां कौन सी बत्ती चमके उम्मीद के झाड़ से लटकते हैं! आज़ को आस्तीन से झाड़ के बैठे हैं, दिन भर गला फ़ाड़ के बैठे हैं टिप-टिप बारिश की आड़ में बैठे हैं मत कहना,बड़े लाड़ से बैठे हैं! आज को कल होने की जल्दी पड़ी थी कतार लगाये लम्हॊं की भीड़ खड़ी थी मुंह छूपा के कितने लम्हे युँ ही गुजर गये जिद्द में खड़े कुछ आने से ही मुकर गये!