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नवंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रिश्ते, कड़वाहट और दो घूँट ज़हर!

तमाशा सारी बातॊं का, मेला रिश्ते नातॊं का बड़े काम का है समझो अब महकमा लातॊं का वो अपने, काम के हैं क्या, वो अपने काम के है क्या? सब अपने, नाम के हैं क्यॊं, सब अपने नाम के हैं क्या? पैदा किया तो बाप होते हैं, जबरन 'आप' होते है रिश्तॊं के नाम से न जाने कितने पाप होते हैं कभी पुरे नहीं पड़ते, अजीब उनके माप होते हैं वो "बड़े" बनते हैं उम्र के और हम खाक होते हैं  नौ महीने का अचार, कह दिया इस को मां का प्यार अपनी बात को आँसू चार, लाचार ममता या व्यापार? ममता है तो क्यॊं सिर्फ़ 'अपने' नज़र आते हैं? क्यॊं कर रिश्ते सारे खून से लकीरें बनाते हैं?  त्याग भी है और आँसू भी, और बेबसी आदत है, दुनिया ज़ुल्मी है, और हरदम इसकॊ दावत है! मर्द को जात कैसी, भुत को बात कैसी, बिन अंधेरॊं के रोशन कायनात कैसी?  आप तो मर्द है, ये मसला बड़ा सर्द है, ये कैदे उम्र है और लावारिस सब दर्द हैं! रिश्तॊं के आचार को मसाला नहीं लगता, ऎसे भी भुखे हैं कोई निवाला नहीं लगता! सारे रिश्ते खुन के, रिसते हैं तमाम उम्र, बेखबरी जख्मॊं से कैसे हो वहशियत कम! अपनी मुस्कराहट से

तलाश, तलाश की!

वो रोशन रात थी या उज़ालॊं की लाश थी बुलंद इमारत, कामयाब इबारत, अंदाज़ जश्न के, और इतनी रोशनी कि सच्चाई जल गयी, ठिठुरती बेबसी अधनंगी सी, कैसे पल गयी, "काश” होती एक जिंदगी, जैसे गड़्ड़ी से फ़िसल गया ताश कोई, बेसब्र नज़र इस आस में‌, कि मिलेगी तलाश कोई, और हम बस चल रहे हैं, एक और शाम, और हम निगल रहे हैं, अंदाज़ भी है, एहसास भी, इरादे भी, फ़िर भी सहारा दे नहीं पाती, तिनका हुँ? पर खुद भी बह रही हुँ, किनारा होने को . . . . क्या नहीं दे दुं! नज़रें बेबस से नहीं मिलीं, पर खुद की बेबसी संभल गयी, एक रास्ता नहीं मिला, पर अपनी सुबह को रोशनी दिखा दी, कैसे कहुँ मज़बुरी थी, मेरी नज़रॊं ने आज़ मेरी उम्मीदें जगा  दीं ! आमीन ! (किसी की एक शाम की चहलकदमी से चुराये हुए ज़ज्बात)

आईये ! / The Invitation!

मुझे मत बताओ कि जिंदगी कैसे कटती है  ये बताओ कि अंदर से आवाज़ क्या आती है, और क्या वो सपने देखने की हिम्मत तुम में है, जो तुम्हें अपने दिल की तड़प तक ले जायें?  मुझे अपनी उम्र कि लंबाई नहीं बताओ, ये कहो कि मुरख बनने का जोखिम उठा सकते हो? प्यार के लिये, सपनॊं के लिये, जिंदगी जीने के रोमांच के लिये!  क्या फ़रक पड़ता है कि तुम्हारे ग्रहॊं की क्या दशा है ये कहो कि, 'अपनी दुखती रग' पर तुम्हारा हाथ है क्या? जिंदगी की ठोकरॊं ने तुम्हे खुलना सिखाया है? या आने वाले जख्मॊं के ड़र से तुम ने अपनी पीठ फ़ेर ली है? जिंदगी से!  जरा ये बताओ कि दर्द को, मेरे या तुम्हारे, बिना कांटे, छांटे, छुपाए, निपटाये, क्या तुम अपने साथ रख सकती हो? जरा सुनूँ, क्या तुम आनंदित हो, मेरे या तुम्हारे लिये! और क्या झुम सकते हो ऎसी दीवानगी से, कि तुम्हारे हाथ-पैर के छोर हो जायें भाव-भिवोर बिन संभले, बिन समझे, बिन जाने, कि इंसा होने कि हदें होती हैं!  तुम जो कहानी मुझे सुना रहे हो वो सच हो न हो, ये कहो कि खुद का सच होने के लिये, क्या किसी और की नाउम्मीदगी बन सकते हो, और अपनी अंतरात्मा को सच होने

ईबारत ए सफ़रनामा

बैठेंगे किस करवट, सौदे सफ़र के, रास आयेंगे सवालात दर-बदर के? ज़िंदगी आसान करते हैं मुश्किलें मेहमान करते हैं जो करें ज़ी-जान करते हैं वो और हैं जो नाम करते हैं!  निकल पड़े एक और ड़गर, एक और सफ़र झोली भी बदल गयी और नया समान भर, इतनी मुलाकातें जज़्ब है दिलो-दिमाग के घर घर जायेंगे पर अब वो अज़नबी शहर-नज़र  मुसाफ़िर कदमों को गिनें, कि रास्तों को चुनें, गुजरें अज़नबी बन कि, नये रिश्ते कुछ बुनें! फ़िर नया सामान है, कंधों में वही जान है, कदम चल रहे हैं अपनी धुन, और क्या काम है? बह गये पानी में सारे शिकन पेशानी के, युँ मिल गये रास्ते, सब को आसानी के!  युँ भी गुजरे हैं रास्ते, रस्तों से आज़, अपनी ही पहचान का कहां अंदाज़, बुंदें समंदर हुयी जाती है, मज़े लुट रही हैं, हर कदम हकीकतें आज़! आवारा कभी भी थोड़े कम न हो हालात कभी ज्यादा गम न हो अज़नबी रास्तों की मुश्किलें अच्छी, ज़ज्बा-ए-बंजारगी कभी कम न हो! हमसफ़र हैं पर साथ नहीं देते, रस्तों को ज़जबात नहीं देते रुकी हुई हैं कितनी सुबहें, क्यों कदमॊं को अंदाज़ नहीं देते? कुछ शोर है कुछ खामोशी भी, कुछ होश है, और मदहोशी भी, अकेले सब के साथ हैं,

इमारत-ए-सफ़रनामा

आ पहुंचे कुछ अज़नबी शहर,  कुछ अंजान ड़गर, ये नगर 'बुद्धू' बोल रही, पहचान कर, हर हलचल,औ शामो-सहर कितनी दीवारें दुनिया में,  और कितने रास्ते गुमशुदा, रुकने को तैयार सब हैं,  पर अपने सफ़र है अलहदा! कुछ इमारतें, कुछ इबादतें, कुछ ईबारतें जो अनपड़ी, शानो-शौकत सामने, पसीनों कि दास्तां नदारतें कितने यकीं है दुनिया में, किस किस का यकीं करें, चलते है जिन रास्तों पर, क्यों न उनको हसीं करें काम करते हैं, दाम करते हैं, मुश्किल किसी की आसां करते हैं, खेलती है जिंदगी जिनसे और ये खेल तमाम करते हैं! जिंदगी निकली है फिर रास्तों की तलाश में फूंक रही है जान जैसे, अपनी ही लाश में कितने आसां आसमान है गर पैर जमीं न हों यतीम हकीकतें हैं, पर किसको यकीं न हो! आज़ादी के बरबाद है,क्या अपने अंदाज़ हैं पैरों को जमीं नहीं है, और हालात बाज़ हैं!