कुछ अंजान ड़गर, ये नगर
'बुद्धू' बोल रही, पहचान कर,
हर हलचल,औ शामो-सहर
कितनी दीवारें दुनिया में,
और कितने रास्ते गुमशुदा,
रुकने को तैयार सब हैं,
पर अपने सफ़र है अलहदा!
शानो-शौकत सामने, पसीनों कि दास्तां नदारतें
कितने यकीं है दुनिया में, किस किस का यकीं करें,
चलते है जिन रास्तों पर, क्यों न उनको हसीं करें
काम करते हैं, दाम करते हैं, मुश्किल किसी की आसां करते हैं,
खेलती है जिंदगी जिनसे और ये खेल तमाम करते हैं! जिंदगी निकली है फिर रास्तों की तलाश में
फूंक रही है जान जैसे, अपनी ही लाश में
यतीम हकीकतें हैं, पर किसको यकीं न हो!
आज़ादी के बरबाद है,क्या अपने अंदाज़ हैं
पैरों को जमीं नहीं है, और हालात बाज़ हैं!
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