चलो इश्क लड़ाएं , अच्छा लड़ाई क्यों, इश्क रहने दो बस तुम हो, मैं हूँ, साथ है, कुछ बात है तुम अब भी शर्मा जाती हो, मैं अब भी घबरा जाता हूँ फिर क्यों हम अपनी संवेदना से खेल रहें हैं मैं अब भी कम सुनता हूँ, तुम अब भी देर से उठती हो अब भी तुमारी बिरयानी मेरी चाय है, मुझे अब भी सही करवट लेना नहीं आता तुमको भी कहाँ ठीक से सोना आता मैं नहीं होता तो अब भी तुम MISS करती हो मौका मिल जाए तो, मैं भी पास आकर .... खैर छोड़ो तुम अब भी मुझे मर्द समझती हो मैं अब भी दर्द नहीं समझता अगर कुछ नहीं बदला तो दर्द क्या है, कौन सी चोट है शायद हमारे देखने में खोट है या कोई पुरानी चोट है और हम मलहम नहीं बन पा रहे कौन से घाव है जो नज़र नहीं आ रहे अरे . . . कुछ करवटें हैं कुछ सलवटें बनी नहीं कितनी रातें है अपनी जो बिन गुजरे ही रह गयीं सोचता हूँ. . . कैसे हम बीमार हैं कि आपको बुखार है किसका हो इलाज, किसको ये अजार है सोचें तो. . . कैसी ये अपने बीच ज़ख्मों कि दीवार है इश्क तुमसे है गर तो क्यों जख्मों से प्यार है और तुम. . . तुम ही आराम हो,
अकेले हर एक अधूरा।पूरा होने के लिए जुड़ना पड़ता है, और जुड़ने के लिए अपने अँधेरे और रोशनी बांटनी पड़ती है।कोई बात अनकही न रह जाये!और जब आप हर पल बदल रहे हैं तो कितनी बातें अनकही रह जायेंगी और आप अधूरे।बस ये मेरी छोटी सी आलसी कोशिश है अपना अधूरापन बांटने की, थोड़ा मैं पूरा होता हूँ थोड़ा आप भी हो जाइये।