तुम हो, मैं हूँ, साथ है, कुछ बात है
तुम अब भी शर्मा जाती हो,
मैं अब भी घबरा जाता हूँ
मैं अब भी घबरा जाता हूँ
फिर क्यों हम अपनी संवेदना से खेल रहें हैं
मैं अब भी कम सुनता हूँ,
तुम अब भी देर से उठती हो
अब भी तुमारी बिरयानी मेरी चाय है,
मुझे अब भी सही करवट लेना नहीं आता
तुमको भी कहाँ ठीक से सोना आता
मैं नहीं होता तो अब भी तुम MISS करती हो
खैर छोड़ो
तुम अब भी मुझे मर्द समझती हो
मैं अब भी दर्द नहीं समझता
अगर कुछ नहीं बदला
तो दर्द क्या है, कौन सी चोट है
शायद हमारे देखने में खोट है
या कोई पुरानी चोट है
और हम मलहम नहीं बन पा रहे
कौन से घाव है जो नज़र नहीं आ रहे
कुछ करवटें हैं कुछ सलवटें बनी नहीं
कितनी रातें है अपनी जो बिन गुजरे ही रह गयीं
सोचता हूँ. . .
कैसे हम बीमार हैं कि आपको बुखार है
किसका हो इलाज, किसको ये अजार है
सोचें तो. . .
इश्क तुमसे है गर तो क्यों जख्मों से प्यार है
और तुम. . .
तुम ही आराम हो, तुम ही हराम भी
तुम ही सताते हो, तुम ही परेशां भी!
ऐसा करें. . .
किताब एक ही है पन्ने अलग अलग हैं
क्या करें कि कहानी एक हो जाए?
मेरे लिए कोशिश बेकार है
तुम्हार लिए कोशिश ही प्यार है
कितना जाहिर ये इज़हार है
कैसे सहमत हों, क्या नागवार है
सारी कोशिशें इश्क कि हैं, सारे झगडे प्यार के,
आप के पहलु में हैं आप से ही हार के
गौर फरमाइए जरा आपको प्यार है
फासले भी हैं और वास्ता भी
रुके हुए हैं और वही रास्ता भी
अब जाने भी दो, यार याद रखो
यार का प्यार याद रखो!!!!
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