एक महीन से कपड़े के अंदर छूपी हैं,
मिठाईयाँ और तमाम बेशरम सच्चाईयां!
अगर दम है तो नये सिरे से भी सीखो,
पत्थर की लकीरें, दरारें भी होती हैं!
परंपरा है बस इसलिये करते हैं,
दिमाग की प्रोग्रामिंग(Programming) कहां करते हैं?
रॉकेट हो गये सारे सपने, उम्मीदों को सुतली बम,
धूल बनी सारी रंगोली, अब आगे क्या बोलें हम!
एक दीवाली है और दो आपके कान हैं,
आज तो बेहरा होना वरदान है!
लगे हैं सब दिन को सुलगाने में,
यूँ हो रही हैं तमाम रातें रोशन!
फ़िर भी आपके कानों पर जूँ नहीं रेंगती!
लड़ी पटाखों की और झड़ी अहमकों कि,
बदसलूकी, बदनियती के मौसम बने हैं!
कहते हैं देर होती है, अंधेर नहीं,
पर रोशनी ही गंदी हो तो क्या?
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