क्यों लोग लगे रहते है दिन भरने में,
रोज़-रोज़ वही करने में जिसमें जी नहीं?
ये कहते हुए कि ये ज़िंदगी का सच है,
गुजारे की demand - too much है?
क्या उऩ्हें मजबूर करता है?
अपने अंतर से दूर करता है?
अपने अंतर से दूर करता है?
क्यों ये सवाल?
क्यों
वक्त के मारों के जख्म पर नमक
छिड़क रहे हो मेरे भाई?
चल
रहे हैं वही जिंदगी ने जो राह
दिखाई,
आप
ने सपनों को रास्ता बना लिया,
अपनी
मुश्किलों का नाश्ता बना लिया,
आईने
के सामने खड़े होकर
उसकी कमी
को परखने कि जगह,
आपने
सवाल पूछ लिये?
तो
लो अब भुगतो,
अब
आपको जिंदगी मज़े से जीनी पड़ेगी,
कभी
आप भी परेशानियों से अपना सर
खुजाएंगे, (तेल
क्यों नहीं लगाते हीरो)
पर
फ़िर भी मुस्काराऐंगे,
पर
घर और स्कूल में उनको टालना
सिखाते हैं,
और
जरूरतों का क्या बतायें,
उसकी
परिभाषा कहां से लायें,
देखो तो,
लाखों
हवा खा कर भी जिंदा हैं?
सवाल
लाख टके का है?
"कौन
कहता है कि चक्की में पिसे
रहो?"
घर-बाहर,
स्कूल,
जाने-अंजाने,
और
तमाम सड़कछाप भगवान,
हमारि
गौरवपूर्ण तहज़ीब,
और
इन सब को चलाने वाली
ताकतें,
दुनिया
के बुरे हाल बताती हैं,
तरह-तरह
से ड़राती हैं,
और
कोई ड़र में अकेला नहीं रहता,
भाग
के भीड़ में जुड़ जाता है,
और
भीड़ की रीड़ नहीं रहती!
आज सुबह आदित्य के किताबीचेहरे की दीवार (फ़ेसबुक वाल) पर पड़े इस चिंतन की चिंता करते हुए लिखे गये मेरे सच!
"In two days I have read two of my friends call their 'end of vacation' as "back to the grind" and many similar things. They were also read to be "feeling wonderful" about it. Why can't our work be as heady as the vacation? Why don't we let ourselves choose such a work that lets us float through weekdays in the buzzed state of happiness and challenge? What is it in our lives that tells us 'it is okay' to pay our bills of needless wants by sacrificing 5/7th (weekdays) of our life?"
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