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कचरा पुराण!

समझ में नहीं आया

देखा

तमाम कचरा

ढेर, अंबार

इंसान की लीला अपरमपार

मुरख थोड़े,

पहले उबकाई, फ़िर

बात समझ में आयी

सही-गलत, अच्छा-बुरा, छोटा-बड़ा, सफ़ेद-काला

जैसे ही,

गंदगी-कचरा भी सम्पूरक हैं,

दीवाली है,

घर की सफ़ाई लाजमी है, पर

लॉ ऑफ़ कंसरवेशन ऑफ़ कचड़ा,

जो मशहूर वैज्ञानिक, “पोंगा पंड़ित" की देन है,


के अनुसार,

कचरा खत्म नहीं कर सकते, उसकी

केवल जगह बदल सकते हैं, तो लो


घर साफ़,

गली, मोहल्ला, शहर, गंदा बदबूदार

और इरादा देखिए कितना नेक है

ओह! लक्ष्मी आप! बाहर बदबू है न बहुत, 

हैं हैं हैं (खीसें निपोर)

आइये न, हमारे घर के दरवाज़े हमेशा खुले हैं,


कुछ इंसान कितने दूध के धुले हैं

मूरख में, अब समझा ये,

वर्ण-व्य्वस्था का विज्ञान,

छूआ-छूत का नया आयाम

मन को साफ़ रखने के लिये

अपने इरादों की बदबू

विचारों की गंदगी,

दिमाग की कीचड़,

सेहत के लिये अच्छी नहीं,

इसे एक वर्ण -समुदाय संभाले

सब की भलाई के लिये

कुछ को तो अछूता रहना ही पड़ेगा,

यही विधि-विधान है,

शास्त्रों का ज्ञान है

गंदगी सोचने-फ़ैलाने वाला = साफ़ होगा, शाश्वत, ब्राह्मण

सफ़ाई करने वाला - गंदा कहलायेगा


सर झुकाये, ठीक से करो,

कर्मों का फ़ल शायद अगले जन्म मिलेगा

नहीं तो उसके अगले, या फ़िर उसके अगले

या फ़िर

देखो! लालच बुरी बला है

या यूँ कहिये, 

किसी को अछुता रखना

बड़ी शातिर कला है!






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हाथ पर हाथ!!

मर्द बने बैठे हैं हमदर्द बने बैठे हैं, सब्र बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अल्फाज़ बने बैठे हैं आवाज बने बैठे हैं, अंदाज बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! शिकन बने बैठे हैं, सुखन बने बैठे हैं, बेचैन बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अंगार बने बैठे हैं तूफान बने बैठे हैं, जिंदा हैं शमशान बने बैठे हैं! शोर बिना बैठे हैं, चीख बचा बैठे हैं, सोच बना बैठे हैं बस बैठे हैं! कल दफना बैठे हैं, आज गंवा बैठे हैं, कल मालूम है हमें, फिर भी बस बैठे हैं! मस्जिद ढहा बैठे हैं, मंदिर चढ़ा बैठे हैं, इंसानियत को अहंकार का कफ़न उड़ा बैठे हैं! तोड़ कानून बैठे हैं, जनमत के नाम बैठे हैं, मेरा मुल्क है ये गर, गद्दी पर मेरे शैतान बैठे हैं! चहचहाए बैठे हैं,  लहलहाए बैठे हैं, मूंह में खून लग गया जिसके, बड़े मुस्कराए बैठे हैं! कल गुनाह था उनका आज इनाम बन गया है, हत्या श्री, बलात्कार श्री, तमगा लगाए बैठे हैं!!

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