सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

क्या खेल खेलें कश्मीर के बच्चे?

आज बहुत मजबूर हूँ,
कश्मीर से बहुत दूर हूँ,
जैसे पेड़ खजूर हूँ,
याद आ रहे हैं वो दिन,
वो लोग
जो इंसान थे,
हमारी तरह, तुम्हारी तरह
एक उम्दा मेज़बान की तरह,
साथ हंसते थे, हम परेशान न हो,
इसके लिए परेशां रहते थे,

जब उनके साथ "खेल से मेल" किया,
तो सब वैसे ही हँसे जोर जोर से,
जैसे लोग बनारस में हँसे थे,
या कंदमाल में, दिल्ली में, पुणे में, जुबा में, येंगॉन में
पर उसके बाद जो बात हुई,
तब उनके दर्द से मुलाक़ात हुई,
"हमारा बचपन अँधेरे को बली था"
अब हम अपने बच्चों को हंसाएंगे,
वो हमारे शुक्रगुजार हुए, और हम,
अपनी नज़रों में ज़रा कम गुनाहगार हुए,

कश्मीर भारत को खूबसूरत है,
और सारे देशभक्त, उसको
कोठे पर बिठाना चाहते हैं,
एक जगह है सबके लिए,
जहां से डॉलर्स आते हैं,
पाउंड, यूरो, और रूपये भी,
कौन छोड़ता है ऐसे माल को,
हर साल जो नयी हो जाती है, वर्जिन
तैयार नथ उतरवाने को,

कौन देखता हैं कि वहां इंसान हैं,
उनके दिल हैं, उनकी जान है,
उनके बच्चे हैं जो
सरकार की गोली कुर्बान हैं!

सफर ज़ारी था, आने जाने में,
कश्मीरी दोस्त
हमको लगे
जगहों के बारे बताने में,
टूरिस्ट जगह है, शायद झील, पहाड़, बाग़ बताएँगे,
"ये वो गाँव है, जहां आर्मी वालों ने सौ औरतों के साथ रेप किया था"
"ये वो चौक है यहाँ एक प्रोटेस्ट पर सरकारी गोली में ,
कई नौजवान और बच्चे आंकड़े बने थे"
और फिर एक फोटो खींची तो, 500 मीटर पर,
हमें पकड़ लिया गया,
सरकार के बंदुकी नुमाइंदे ने पूछा,
कौन हो, कहाँ से आए,
हमारी बात सुन कर मुस्कराये,
"ओ!हमारी साइड के हो, जाओ जाओ!"

ये कैसी बीमार सोच है,
जमीं उसके लोगों से अलग कर दी है,
कश्मीर चाहिए, कश्मीरी नहीं?
कितने मासूम गायब है,
कितने एनकाउंटर नाजायज़ हैं,
पर देश के नाम सब वाज़िब है!
सरकार मुंसिफ भी और नाज़िर है,
हर सवाल को बन्दुक हाज़िर है!

बच्चे क्या सीखेंगे, वही जो वो देखेंगे,
चोट, घाव, लाश, जबरन तलाश,
गिरेबां पर खाकी हाथ,
भाई की लाश,
दर्द, सर्द, गुस्सा, हताश, निराश, डर,
और बंदूक में 'जय जवान' हर तरफ
रोक हर तरफ, टोक हर कदम,
अब खेलें तो क्या?

याद आ गया, गुजरात 2002 में
बच्चों का एक झुंड,
दंगो के 3 महीने बाद, शाह आलम केम्प में,
"रिलीफ केम्प",
एक खेल खेल रहा था,
टीम बना कर,
दो टीम जिनका नाम था "हिन्दू और मुसलमान"
खेल था, चलो एक दूसरे को पीटें

आप चाहेंगे आपके बच्चों के लिए ये खेल?

सोचिये कश्मीर के बच्चे क्या खेलेंगे,
"सेना और कश्मीरी" या "भारत और कश्मीर"

किस मुँह अब वहां जाएँ, कहें
हम "खेल से मेल" कराएं?
खेल तो ठीक पर मेल?

(कश्मीर में 2012 में बाल सुरक्षा अधिकारियों के साथ प्ले फ़ॉर पीस की ट्रेनिंग के दौरान वहां के दर्द को समझना शुरू किया था, 40 दिन पहले ही वहां के एक युवा ने फोन करके कहा , 'फिर से आइये, बच्चों के खेल लेकर, खेल से मेल लेकर। बात हुई की ईद के बाद कभी आएंगे। जाना तो है ही)








टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

साफ बात!

  रोशनी की खबर ओ अंधेरा साफ नज़र आता है, वो जुल्फों में स्याह रंग यूंही नहीं जाया है! हर चीज को कंधों पर उठाना नहीं पड़ता, नजरों से आपको वजन नजर आता है! आग है तेज और कोई जलता नहीं है, गर्मजोशी में एक रिश्ता नज़र आता है! पहुंचेंगे आप जब तो वहीं मिलेंगे, साथ हैं पर यूंही नज़र नहीं आता है!  अपनों के दिए हैं जो ज़हर पिए है जो आपको कुछ कड़वा नज़र आता है! माथे पर शिकन हैं कई ओ दिल में चुभन, नज़ाकत का असर कुछ ऐसे हुआ जाता है!

मेरे गुनाह!

सांसे गुनाह हैं  सपने गुनाह हैं,। इस दौर में सारे अपने गुनाह हैं।। मणिपुर गुनाह है, गाजा गुनाह है, जमीर हो थोड़ा तो जीना गुनाह है! अज़मत गुनाह है, अकीदत गुनाह है, मेरे नहीं, तो आप हर शक्ल गुनाह हैं! ज़हन वहां है,(गाज़ा) कदम जा नहीं रहे, यारब मेरी ये अदनी मजबूरियां गुनाह हैं! कबूल है हमको कि हम गुनहगार हैं, आराम से घर बैठे ये कहना गुनाह है!  दिमाग चला रहा है दिल का कारखाना, बोले तो गुनहगार ओ खामोशी गुनाह है, जब भी जहां भी मासूम मरते हैं, उन सब दौर में ख़ुदा होना गुनाह है!

गाज़ा की आवाज़!

 Translation of poem by Ni'ma Hasan from Rafah, Gaza, Palestine (https://www.facebook.com/share/r/17PE9dxxZ6/ ) जब तुम मुझे मेरे डर का पूछते हो, मैं बात करतीं हूं उस कॉफी वाले के मौत की,  मेरी स्कर्ट की जो एक टेंट की छत बन गई! मेरी बिल्ली की, जो तबाह शहर में छूट गई और अब उसकी "म्याऊं" मेरे सर में गूंजती है! मुझे चाहिए एक बड़ा बादल जो बरस न पाए, और एक हवाईजहाज जो टॉफी बरसाए, और रंगीली दीवारें  जहां पर मैं एक बच्चे का चित्र बना सकूं, हाथ फैलाए हंसे-खिलखिलाए ये मेरे टेंट के सपने हैं, और मैं प्यार करती हूं तुमसे, और मुझमें है हिम्मत, इतनी, उन इमारतों पर चढ़ने की जो अब नहीं रहीं,, और अपने सपनों में तुम्हारी आगोश आने की, मैं ये कबूल सकती हूं, अब मैं बेहतर हूं, फिर पूछिए मुझसे मेरे सपनों की बात फिर पूछिए मुझसे मेरे डर की बात! –नी‘मा हसन, रफ़ा, गाज़ा से विस्थापित  नीचे लिखी रचना का अनुवाद When you ask me about my fear I talk about the death of the coffee vendor, And my skirt  That became the roof of a tent I talk about my cat That was left in the gutted city and now meo...