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सितंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चंद सवाल!

मोइनुल हक़ क्यों भागा? लाठी ले कर क्यों भागा? लाठी में कितनी गोली थी? ऐसी क्या उसकी बोली थी? पुलिस के कितने लोग थे? उनका सीना क्या छप्पन था? उनकी लाठी में क्या कम था? लाठी से पहले क्यों बंदूक चली? फिर उसके बाद क्यों लाठी? क्यों उसका मरना काफ़ी न था? क्या गुनाह हुआ जो माफ़ी न था? फिर कौन लाश पर नाच किया? उसपर किसने विश्वास किया? उस का आखिर क्या मज़हब था? क्या वो कोई अवतार था? क्या कोई दैवीय शक्ति थी? या ये परम भक्ति थी? देखा आपने भी होगा? नफ़रत में कितनी शक्ति थी? क्या मोइनुल कमजोर था? क्या वो बहक गया था? या वो बिल्कुल पागल था? बंदूक से लाठी लड़ने आया,  उसको आखिर क्यों गुस्सा आया? क्या मोइनुल को गुस्से का हक़ था? गरीब मजबूर और अहमक था? क्या वो इंसान बनने के लिए दौड़ा था? क्या सरकार ने जानवर की तरह खदेड़ा था? क्या चुप रहना ठीक होता? जुल्म सहना समझदारी? क्या उसे लोकतंत्र नहीं समझा? क्या उसे न्यायपालिका पर भरोसा न था? क्या ये कोर्ट की अवमानना नहीं है? अगर सरकार नहीं मानते, न्याय नहीं जानते? फिर तो वो भारतीय कहलाने लायक नहीं? फिर क्यों हम उसकी बात करें? इंसान नहीं? भारतीय नहीं? पुरानी ख़बर हुई, अब न

हिंदुत्वतन्त्र लोकभंग!

सच में अब ताकत नहीं है, ताकत में ही सब सच है! बोल रही खामोशी है, चीख़ रही बेहोशी है, जो चुप है वो आवाज़ है, ओ कुछ भी जो अलग अंदाज़ है! भीड़ जो है कानून बन गयी, पुलिस मेजबान बन गयी आम जगह बनी शमशान, धार्मिक लोकतंत्र की शान! अल्हा को अब राम बचाए? वेद पुराणों के दिन आए? अखंड भारत, महाभारत, मुर्दे की छाती पर कूदती, वानर सेना की महारथ!

एक अरसे बाद!

फिर एक सफ़र मिले, सरफिरे निकल पड़े, देखें ऊंट किस करवट पड़े! कुछ पुराने, कुछ नए, नाक मुंह परदे लिए, अलग सच या सच से अलग, देखें क्या रास्ते मिले! एयरपोर्ट लाउंज, हवाई सफर, महामारी क्या फ़र्क क्या असर, भीड़ कम है, पर शायद रीढ़ भी! दो के बीच की दूरी, जरूरी...मजबूरी? कुछ ऐसे बंट गए हैं, छुटे हुए और, छट गए हैं! सच्चाई वर्चुअल हो गयी, रोटी कपड़ा मकान, और जरूरी स्मार्ट फोन, जिनके पैर जमीन नहीं, उनको आसमान भी नहीं? बच्चों की पढ़ाई, जैसे कोई जंग, लड़ाई, कैसी ये तरक्की आई, गहरी और हाशिए की खाई! (18 महीने बाद पहली बार एक लंबे सफर को निकलने पर कुछ ख़्याल)

बैठे हैं, बस!

एक आह लिए बैठे हैं एक चाह लिए बैठे हैं, पहचाने रास्ते हैं फिर भी गुमराह हुए बैठे हैं! दर्द तमाम लिए बैठे हैं, क्या इतमिनान लिए बैठे हैं? अपने दिल के बगीचे को वीरान लिए बैठे हैं! एक मुस्कान लिए बैठे हैं, कैसा ये काम लिए बैठे हैं, कहीं कुछ आसान करेंगे, ये गुमान लिए बैठे हैं! अपना आराम लिए बैठे हैं, नक़ाब पहन लिए बैठे हैं, करम के फल हैं सारे,  मूरख मान लिए बैठे हैं! हाथ बांध लिए बैठे हैं, झूठी शान लिए बैठे हैं, कत्ल हो रहे है सच कितने, ओ वो राम लिए बैठे हैं? नया विज्ञान लिए बैठे हैं, चंद्र, मंगलयान लिए बैठे हैं, ऑक्सीजन कम हुई तो क्या? सब बंद कान लिए बैठे हैं!! नफ़रत ठान लिए बैठे हैं, कैसा धर्मज्ञान लिए बैठे हैं मंत्री संत्री सब एक सुर में, तोतों सा ज्ञान लिए बैठे हैं! मुंह में राम लिए बैठे हैं, बगल संविधान लिए बैठे हैं, घड़ियाली आँसू हैं सारे, ओ सब सच मान लिए बैठे हैं?