जीने की कोई परवा नहीं है,
मरने का कोई शौक नहीं,
होश संभाला कब हमने,
इस बात का कोई होश नहीं!
बड़े बढ़िया बढ़िया लोग यहां,
कुछ खास भी कुछ पास भी,
पर उनको करने को, अपने
पास तो कोई बात नहीं!
हंसना रोना सब होता है,
पर फिर भी हम जज़्बात नहीं,
बड़े गहरे समंदर हैं सब,
अपनी कोई बिसात नहीं!
मुश्किलें सब नज़र आती हैं,
पर कैसे कहें आराम नहीं,
लंबी उमर है अपनी शायद,
पर ये तो कोई इल्ज़ाम नहीं?
(जी रहा हूं बस, जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूं![जिगर मुरादाबादी] )
कितने लोग नजर आते हैं,
जिनकी कायनात नहीं,
हाथ पे हाथ धरे बैठे हम,
के अपने बस की बात नहीं!
कोशिश तमाम ज़ारी हैं,
अब इंकलाब की बारी है,
कहने को हम शामिल हैं
पर अपनी वो औकात नहीं!
उम्मीदें हैं नजरों में पर
दिल में हैं मायूसी भी,
आस बहुत हैं गरीब की,
शायद अब वो प्यास नहीं!
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