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मार्च, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बँटवारा!

आपस में आज अपना बँटवारा हो गया मैं मेरा हो गया , तू तेरा हो गया जिस ड़ाल पर बैठे बसेरा हो गया वो बैठा और बोला घर मेरा हो गया आँख खुली थी बस सबेरा हो गया कोई परेशान है सुना अँधेरा हो गया कहता है वो दुश्मन हमारा हो गया एक रिश्ता भगवान को प्यारा हो गया रास्ते ख़त्म नहीं होते किसी मोड़ भी दीवारों का फिर क्यों ये बसेरा हो गया  लंबा सफ़र एक रस्ता और मकाम सारे  एकदम क्यों मतलब सब दोहरा हो गया कैसा झगड़ा ये कि दिन मेरा हो गया सूरज निकला कैसा कि अंधेरा हो गया (2000 में  रचित, सीमित सोच और असुरक्षित मानसिकता को श्रदांजलि स्वरूप )

तलाश का इन्तेज़ार

वो रोशन रात थी या उज़ालॊं की लाश थी   बुलंद इमारत, कामयाब इबारत, अंदाज़ जश्न के, और इतनी रोशनी कि सच्चाई जल गयी, ठिठुरती बेबसी अधनंगी सी, कैसे पल गयी, " काश” होती एक जिंदगी, जैसे गड़्ड़ी से फ़िसल गया ताश कोई, बेसबर नज़र इस आस में‌ कि मिलेगी तलाश कोई, और हम बस चल रहे हैं,  एक और शाम, और हम निगल रहे हैं, अंदाज़ भी है, एहसास भी, इरादे भी, फ़िर भी सहारा दे नहीं पाती,  तिनका हुँ? पर खुद भी बह रही हुँ, किनारा होने को . . . . क्या नहीं दे दुं! नज़रें बेबस से नहीं मिलीं,  पर खुद की बेबसी संभल गयी, एक रास्ता नहीं मिला, पर अपनी सुबह को रोशनी दिखा दी, कैसे कहुँ मज़बुरी थी, मेरी नज़रॊं ने आज़ मेरी उम्मीदें जगा दीं! आमीन! - किसी के फेसबुक स्टेटस से चुराई, नीचे लिखी भावनाओं को समझने की एक कोशिश,  ["And on my evening walk I see this huge bunglow flooded with lighting, must be a wedding home and outside the house lay a half clad begger shivering in the cold..........and I feel so small about being able to do nothing about this 'george of life'. If only I cou

रंग पहचाने से!!

अं धेरों पर रंग डालते हैं यारब , या रंग काले करते हैं दिल बहलाने को मज़हब ये कैसी चालें चलते हैं ! अ रसों से छुपाये थे , आज अंधेरे दिन में बाहर निकले हैं ,    रंगों की चादर ओढ कर , न जाने कितने हाथ फ़िसले हैं !! मुँ ह काला करने की रवायतें पुरानी हैं ,      सफ़ेदपोशों की कोई ये शैतानी है ! बु रा न मानो थोड़ी ज़बरजस्ती करते हैं , बाज़ार गर्म है , इज़्जत सस्ती करते हैं !!    घि स घिस के रंगी चेहरे सफ़ेद करते हैं , इस तरह लोग रातों को सुबह करते हैं ! अ पने मज़हब के हम यूँ ही यकीं हो गये , संज़ीदगी के अपनी ही शौकिं हो गये , आसमां अपने सारे जमीन हो गये दिल में डुबो हाथ , देखिये रंगीं हो गये हा थ रंगने को मिट्टी बहुत है , फिर भी लोग खून लाल करते हैं मौत कोई बीमारी नहीं है , काहे फ़िर मुर्ख इलाज़ करते हैं

मर्द -औरत

कुछ लोग दुनिया के औरत होते हैं ज्यादातर तो सिर्फ बेगैरत होते हैं! देवीओं के भजन और देवीओं का ही भोजन, न सज्जन है कोई ढंग का, न ढंग का साजन! कितने बेअसर अब सारे मर्द होते हैं, दवा हो नहीं सकते फ़क्त दर्द होते हैं! छाप मर्द की है और निशान औरत के, बड़े फुजुल है कायदे तमाम शोहरत के दबंग होना मर्दानगी और छिछोरापन तहज़ीब है, क्या समझें अपनी कुछ रवायतें फ़िर अज़ीब हैं! कौन कहता है मर्द को दर्द नहीं होते, बात अंदर की है, मामले युँ सर्द नहीं‌ होते, युँ कि, जब हम इज़हार करते हैं, क्या मज़ाल किसी की, हम इंकार नहीं सुनते! स्त्री धन है, बहुत मर्दॊं के लिये, बदन है, फिर भी क्यों मां बनती है, बढ़ा प्रश्न है?

बेदखल !

अपने ही घर से निकाले गए कहता है अब तक पाले गए जैसा था सांचा ढाले गए हम कहाँ वक्त के हवाले गए  झूट के जाल में जाले गए हर सच पर अपने सवाले गए अपने हाथों के निवाले गए उनके हाथों में प्याले गए कैसे ये आँखों को जाले गए सारे उसूलों को लाले गए रस्ता दिखे यूँ उजाले किये उसने दरवाजों को ताले किये [कई कई साल पहले, लोगों के छोटे दिल और सिकुड़े हुए दिमाग से प्रभावित होकर रचित]