ये
शबाना है,
हिम्मत,
लगन को
दुनिया में रहने का बहाना है,
दुनिया में रहने का बहाना है,
मुश्किल
है फ़िर भी मुस्कराना है,
कल
की बात बेमानी है,
आज़
को आज़ ही सुलझाना है,
और
तरीके अपने,
(मक्का मस्ज़िद, हैदराबाद में शबाना अन्य महिलाओं को ऐरोबिक्स करा रही हैं) |
दुनिया तो हर तरीका आज़मायेगी,
कभी
नाउम्मीदी के सपने दिखायेगी,
पर
ये दाल यहां नहीं गलेगी,
कुछ
करना है, नया
ही सही,
ड़रने
कि लिये पूरी जिंदगी पड़ी है,
(13-14साल
की उम्र में शबाना अपने को 16
मानकर/
जानकर प्ले
फ़ॉर पीस (www.playforpeace.org)
कि सदस्य
बनीं और पुराने हैदराबाद की
संकरी गलियों में बच्चों को
मुस्कराने, हँसाने
लगी!)
इंग्लिश
मीड़ियम स्कुल में भी जानी जाने
लगी,
ड़र
तो था, पर
अपने से मुहब्बत कैसे छोड़ दें,
हर
एक मकाम पर आकर भी,
सोच
ने रोकने की तमाम कोशिश की,
"ये
कैसे होगा, मेरी
किस्मत ही नही”,
पर
सपनों का साथ नही छोड़ा,
अपने
हालात के परे जाकर,
इर्द-गिर्द
गश्त करती सच्चाईयों को झुठलाके
(तुम
मामूली हो, कम,
कम सोचो,
छोटी
गलियाँ है, चौंड़ी
सड़कें मत देखो,
पुराना
शहर हैदराबाद, यहीं
करो दुनिया आबाद
होंगे
और भी रास्ते मेरे वास्ते,
रस्ते
मोड़ देते हैं अक्सर,
क्योंकि
हम अपनी नज़र से
बरबाद
है,
नही
जानते कि
हमारे
देखने के आगे भी
एक
दुनिया आबाद है,
(और
शबाना देश के तमाम हिस्सों
में ट्रेनिंग देने के लिये
जाती हैं,
अपने
तज़ुर्बों से दुसरों को सपने
बुनना सिखाती हैं )
सपने रात को आते हैं, पर उन तक जाने कि लिये
दिन
में चलना पड़ता है,
सीखने
कि लिये स्कुली तालीम नहीं
लगती,
इल्म
आता है, जिंदगी
जीने से,
आज़
कितने सपने आबाद हैं,
मिलिये
शबाना
उस्ताद हैं!
(शबाना सितम्बर 2000 से, यानी आज़ से तेरह साल पहले तेरह साल की उम्र् में प्ले फ़ॉर पीस की वोलेंटियर बनीं. पहले हफ़्ते में एक बार बच्चों को प्ले फ़ॉर पीस कराते कराते, वो धीरे धीरे स्कुलों में भी प्ले सेशन लेने लगीं, उन स्कुलों में जो उनके बचपन को अहमियत नहीं दे पाये।सिर्फ़ कुछ सार्थक/मानीखेज़ करने की चाहत उनको भारत के अलग अलग कोनो मेंले गयी जंहा वो लोगों को प्ले फ़ॉर पीस की समझ देती हैं और उनकी कहानी ही युवाओं के सोचने का दायरा बड़ा देती है। शबाना के पास कोई भी ड़िग्री नहीं है, पर उनसे सीखने वालों कॆ उमर 6 से 60 तक है!उनको दे कर हमारी दुआ काबिल है, आप भी दिल खोल के कह दीजिये, गर कोई दुआ ज़ुबान पे आती है)
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