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सज़ा-ए-मौत!

ताज़ीराते हिंद कहती है सज़ा--मौत है,
एक मरता है या इंसानियत की मौत है?

शराफ़त का नया धंधा वसूली है,
गुनाह मोटा है कहते हैं सूली है,

हाथ अपने खड़े हैं,
पर किसी और को फ़ाँसी है,
एक ताकत को सज़ा है और,
एक को माफ़ी है?

कहते हैं सबक सिखाना जरूरी है,
कौन सी शिक्षा रह गयी अधुरी है'?

लगता है जैसे कोई मज़बूरी है,
फ़िर क्यों इंसा होना जरूरी है?

सुधार नहीं सकते तो सिधार तो,
कर्ज़ भारी है जिंदगी उधार लो!


ड़र मौत का रोक देगा गुनहगार को,
जैसे रेड़ लाईट रोकती है कार को?


सारे तज़ुर्बे यहीं के,सारी सोच यहीं से,
अब कटघरे खड़ी है
क्यों नहीं देखते फ़ैसला देने वालों 
हैवानियत यहीं पली बड़ी है?   

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साफ बात!

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