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अक्तूबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

खूबसूरत किस सूरत!?

खूबसूरती, लम्हा है, कोशिश नहीं, नज़र आए, घर कर लीजे, मुगालता, (के) फिर कर लीजे आप भी हिस्सा हैं इसका, पर ये आपकी सिर्फ़ बात नहीं, आपके हाथ से हो, आपके हाथ नहीं! खेल है, मेल का, जोड़तोड़ का, जुड़ने का, मुड़ने का, पंख कोई, किसी के, ले कर उड़ने का खूबसूरती सोच है, सवाल है, एक उम्दा ख़्याल है, वक़्त पर हुआ मलाल है, सिहरन जगाए सो ताल है, जो पलक झपक जाए, मंद मुस्कराए, चुप से छू जाए, हवा हो जाए, खूबसूरती परिभाषा नहीं, यकीन भी है, गुमां भी, खाली हाथ और सामां भी! दो सांसों के बीच एक ख़ाली जगह एक लम्हा रास का, ख़ास सा और पास का!!

सर्दी और सुबह!

फिर आ गयी सिरहाने से, एक सुबह जाग उठी है! आज सुबह बस आई सी है, कुछ ज्यादा अलसाई सी है! छुट्टी मांगी नहीं मिली, सूरज की भी नहीं चली! गुस्से से लाल पीला है, जागा अभी अकेला है! पुरे दिन पर सुबह छलकी पड़ी है, धुप तेज पर सर्दी को हल्की पड़ी है! सर्द रातों को सबक सिखाने, बद्तमीज सुबह जरुरी है?  सर्दी में सुरज की बदतमीजी बड़ी हसीन है, बेशर्म हो कर ज़रा धुप को छू लेने दीजे!! सुबह शाम है और दिन रात भी, सब कुदरत है और करामात भी!

छुट्टी का दिन!

हुई कि नहीं सुबह? दिन निकल आया  रोशनी भी है पर ना सूरज है ना सुबह की चमक? हवा झकझोर रही है, बादल घनघोर रहे हैं, चाय का जायका वही है! पर असर अलग हो गया मौसम छुट्टी वाला है, पर यह कैसे समझे और किसे समझाएं? जुत गए हैं सुबह सब फिर से, कल को आज और आज को कल करने में! वही अपनी हाजिरी भरने में? बैल खेत जोत रही है, गधे घास  चर रहे हैं, भेड़ चाल चल रही है,  और हम इंसान सर्वोच्च प्राणी, आजाद, समझदार, चलिए जाने दीजिए देर हुई तो फिर ट्रैफिक में...

इंसान समझदार!

सुरज की लाली, बादल काली, और इसी में छुपी कहीं हरियाली! और भी रंग हैं पहचाने से, जो हैं, और वो भी जो नज़र नहीं आते, पर आपको सबूत चाहिए, दुनिया अपनी मजबूत चाहिए? पहले जंगल को काट दिया, फिर समंदर को बांट दिया, आसमान में तारे खोजते हैं, फिर पांच सितारा, वातानुकूलित, कमरों में मुट्ठी भर पानी की बोतल खोलते हैं, एक्सपर्ट, उस्ताद, विशेषज्ञ बोलते हैं, हम समझ गए हैं, सिद्द किया है इंसान सबसे समझदार प्राणी है! आप भी समझ गए होंगे? आखिर आप भी इंसान हैं? आख़िर वेदों में लिखा है, ज्ञान से ही मुक्ति है! जल्दी ही!!

मुर्दा जानशीन!

आग जल रही है लाखों सीनों में, गश्त की कैद में सूखे पसीनों से! मन चाहा देखने की इजाज़त नहीं है, 9 हफ्तों से शुक्र की इबादत नहीं है? मुश्किल सवालों की आदत नहीं है! हामी के बाज़ार में बगावत नहीं है! सवाल सारे कवायत हैं रियासत की रवायत हैं, फ़रमान ही भगवान है! ख़बरदार, ये जुर्रत,  क्या औकात! गले पर सरकारी हाथ! ट्विटर पर गाली, न्यूज़ सीरियल सवाली, भीड़ की हलाली, धर्मगुरु दलाली! व्हाट्सएप के खेत हैं डर के बीज नफ़रत के पेड़, मज़हबी भीड़, भेड़! कश्मीर सिर्फ जमीन, सुंदर बेहतरीन, 80 लाख कब्र, ज़िंदा,? करोड़ों जोशीले मुर्दा, जानशीन?

अपनापन!

हम  उन्हीं आवाज़ों से बात करते हैं , जिन्हें हम खुद सुन सकते हैं , और काया बोलती है , और वो बात करती है , सिर्फ़ , उस देह - ए - दुनिया से , जो उसकी पकड़ में है। और वो अपने आप में एक जहां हो जाती है , गौर करके , कि उसका सरोकार क्या है और ये सीखती है , कि उसे क्या होना है , और क्या लाज़मी है! (डेविड व्हाईट की द  विंटर ऑफ़ लिसनिंग से) From  The Winter of Listening by David Whyte in  The House of Belonging