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गूंजती खामोशियाँ!

सब खामोश हैं कोई सुन नहीं सकता?

दर्द सारे मज़हबी रंगों में बिकने लगे हैं!


बेख़बर अपने खंजरों से, इतने मासूम हैं

सारे दोष शिकार के, ऐसे गुनहगार हैं! 


किस किस क़त्ल पर भगवान का नाम है,

बस एक मत्था टेका के सौ खून माफ हैं!


इतनी चुप्पी है या कान के पर्दे फट गए?

इतने घिनौने सच, सब धर्म जात में बंट गए!


नफ़रत माफ, झूठ माफ, सरेआम कत्ल माफ़?

अपने धर्म की शिक्षा सबको कितनी साफ है!


घर बैठे हर एक गुनाह की वकालत करते हैं,

आंखों पर पट्टी बांध सब इबादत करते हैं!


अपनी कमियों ने कितना कमजोर किया है, 
इलाज़ ये कि किस किस को दोष दिया है?


यूँ नहीं की शहर के सारे आईने ख़ामोश हैं! 

किसके हाथों बिक रहे हैं, ये किसको होश है?


ज़ुल्मतों की कमी नहीं, और रोशनी कातिल है,

किसको इल्ज़ाम दे के अपने ही सब शामिल हैं!

(ज़ुल्मतें - अँधेरे)

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