जमीं नहीं रही अपनी, पैर टूट गए,
रहसह के बस मेरे पंख छूट गए!
उड़ने के सिवा अब चारा नहीं,
इस तरह वो मेरे रास्ते लूट गए!
खून से अपने ही महक आती है,
नफ़रत को सब, अपने जुट गए!
बस एक रंग में सब बातें करनी हैं,
मेरे आंगन के सारे मौसम उठ गए!
कौन कहता है कि दुनिया मेरी हो,
लाइब्रेरी से वो शब्दकोश हट गए!
मेरे तुम्हारे अब हमारे नहीं रहे,
यूं रिश्तों में मायने सिमट गए!
सब के सच अब अलग अलग हैं,
ये बोल सब महफिल से उठ गए!
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें