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सितंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मासूम चीख!

मासूम चीख अंजान हालात अनगिनत सवालात पर शब्द कहाँ है? प्यार और, नाज़ुक ज़बरदस्ती माँ भी तो करती है, पर ये कुछ अलग एहसास है, और ये मुस्कराहट...! जहरीली पर शब्द कहाँ है? माँ को बोला, हंस दीं, “तू बहुत प्यारी है” सबको तुझसे प्यार है, पर मुझे मालूम है ये ‘स्पर्श’ बेकार है वो हाथ उन जगहों पर क्यों जाते हैं? “मासूम चीख” पर शब्द कहाँ हैं? आप समझ पाएंगे ? गोद है उनकी, चीजें मेरे पसंद की, सबको दिखता है “ये प्यार”, और मैं समझ नहीं पाती? वो कुछ दबाव, कपड़ों के साथ खेल, मम्मी भी करती हैं, पर ये कुछ अलग है, पर मेरे पास शब्द कहाँ हैं? खो गयी फिर मेरी... मासूम चीख! (लैंगिक शोषण के शिकार अनगिनत बच्चों को समर्पित, जिनकी मासूम चीखें माँ-बाप के कानों पर दस्तक देते देते थक जाती हैं)

जश्न-ए-गुलामी!

चलो गुलामी के जशन बनाएँ वही ठीक है जो होता आया है, स्थिरता कितनी अच्छी चीज़ है, सब कुछ वही....! सही! ज़माना खराब है, नयी चीज़ क्या भरोसा? आज़ादी? बाप रे बाप! आज़ाद खयालात? यानी, सारी मुसीबतों की जड़! छूट जायेगी, बनायी है जो पकड़, बचपन से अब तक, कितनी मेहनत से, भावनओं में जकड़ आश्रित बनाया है, पालन-पोषण का यही सरमाया है, जी जान से किया है अपने पैरों पर खड़ा, उम्र लग गयी, भरने में खाली था घड़ा! कहते हैं, सोच को खुलने दो ख़बरदार, वर्षों की मेहनत मिट्टी में घुलने दो? आखिर कुछ सोच-समझकर ही सब कुछ “तय” है! दुनिया चल रही है, क्योंकि दिलों में भय है! आज़ाद हुए खयालात, तो डर भूल जायेंगे कड़वे सच, व्यवस्था के ठेकेदार कहाँ पचा पायेंगे, बात बढ़ जायेगी, जंग छिड़ जायेगी, और हम अमन पसंद हैं नाक-बंद कर लेंगे, अगर सामने गंद है, दुनिया जैसी है, वैसी ही रहने दो, कुछ आजाद खयालात, गुमशुदा होने दो, अच्छा है! जो “त्याग” करना, संस्कृति की शान है, दो पल शांत , सर झुकाएं चलो! गुलामी का जश्न मनायें!

सफ़र के नुस्खे!

मुसाफ़िर रास्ते चुनते हैं मील के पत्थर नहीं गिनते, चलते रहिये युँ ही सफ़र अपने माफ़िक-ए-मन के! फ़िर पहलू से एक करवट उठी है, फ़िर कोई आहट एक लम्हा बनी है, फ़िर कोई नज़दीकी फ़ांसला बनी है  फ़िर एक आह सफ़र हो चली है!  कुछ नहीं बदला है तो क्या अलग है, देखें आज़ शफ़क को क्या फ़लक है? देखें आज़ उफ़क को क्या ललक है? नये लम्हों को ज़ज्ब करने मेरी पलक है! सफ़र लंबा है, दो साँसें आज ली तो लीं, पीछे क्या मुड़ना दो घड़ियां जरा जी तो लीं उठा लो अगला कदम दौर बदलने दो, फ़िर दास्तां बनेगी, आपको फ़ूर्सत मिली न मिली ! दिन के गुम दो-चार पहर, भटके हैं क्युँ शहर शहर डर, विपदा, अंजान कहर, ठोर कहां और कहां ठहर कुछ देर रुके हैं, तो हम मुसाफ़िर कम नहीं होते, ज़ारी सफ़र सदिओं से साहिल के किनारे, खड़े हैं (शफ़क - skyline during sunset; उफ़क़ - horizon; फ़लक - universe, sky)

ससुरे सच!

दुनिया में कहाँ से मुये मर्द हो गये, सरफ़िरे सारे सरदर्द हो गये  इतने कैसे बीच फ़र्क हो गये,  सर पड़े जिसके बेड़ागर्क हो गये  ये प्यार ससुरा कैसा जो दवाई न बने क्या काम का दूध कि मलाई न बने, वो थंड़ कैसी जो रज़ाई न बने उस्तरा (इस तरह) कोई कसाई न बने! ये साथ कैसा ससुरा जो सवाली न बने, क्या काम की मुर्गी जो हलाली न बने, वो बोसा ही क्या जो लाली न बने, रोशन उम्मीदें हैं, बस दीवाली न बने  हम कहीं अचार बन रहे हैं, वो कहीं लाचार, यही आज की ताज़ा खबर, यही टुटता समचार हमारी खिचड़ी बन रही है, और वो मिर्ची बने हैं क्या बतायें हाल, हालात साले बावर्ची बने हैं!  बन संवर के बोलेंगे तो झुठी बात होगी, लड़ झगड़ कर बोलेंगे, तो खोटी बात होगी, रोज की बात कहें तो रोटी- भात होगी, बस मुस्करा दीजिये मोटी बात होगी! नोंक -झोंक आपसे हुई, सो चाट होगी रुठ गये तो मन्नतों की लगी, हाट होगी आ गया गुस्सा, तो खड़ी खाट होगी, मान गये अपनी, तो बड़ी थाट होगी!

सच में!

क्या सच आजाद होते हैं? अकेले? अपने आप में पूर्ण? आत्मनिर्भर दो सच जब साथ आते हैं तो सामने होते हैं या बगल में इंसान जब सामने आते है तो नागासाकी पहुँच जाते हैं, अगर आप कहते हैं दुनिया सुन्दर है तो आप शायद बन्दर हैं टुकुर टुकुर देखते, पैरॊं पर खड़ा होना सीख गए पर ध्यान शायद अब भी उस आम में अटका है जिसकी गुठली के दाम नहीं होते दुनिया चीख कर कह रही है “ये आदमी किसी काम का नहीं” पर आप कान नहीं होते!

"Fare and Lovely"...फ़ेयर और . . . . लवली?

क्या है शाश्वत सत्य, सफ़ेद सच  सच का ब्राह्म्णीकरण , या विश्व्यीकरण , झूठ का मुँह सदैव- क्यॊं काला होता है, यानी बोलते समय सच था, सामने आते आते काला हो गया, मैं मुर्ख हूँ  , या ये रंगभेद है,  गोरा बच्चा क्यों प्यारा होता है, और काला, बेचारा, बच्चे, भगवान का रुप होते हैं, बड़े होकर, क्यों इतने मुर्ख होते हैं? बनावट का दोष है, या ये दुनिया "फ़ेयर एंड़ लवली" का शब्दकोष है, भगवान मालिक है, और बड़ा अमीर भी, रंगभेद से इंसान पैदा करता है, और रंगों का ही सौदा करता है, सोचिये, दाल में काला ही क्यों होता है, जैसे कि, गोरा हुआ तो आप चबा जायेंगे? नाकों चनें? आपको मेरा कहा कड़वा लगता है, तो शायद सच ही होगा, वैसे भी कहीं सुना है, झुठ सफ़ेद और सच काला होता है, क्या आश्चर्य है, दुनिया में इतना घोटाला होता है, और झुठ पकड़ा गया तो उसका, मुँह काला करते है, क्यों? पहले क्या रंग था?

थियेरी - Theary C Seng

--> थियेरी   एक आवाज़  , तमाम कोशिश , एक दर्द जो बेचारा नहीं है  , आँसु पीना गवारा नहीं है  , ताकत सिर्फ़ यकीन की  , बदला तो कमज़ोर लेते हैं  , पर अपने अत्याचार से आँख मिला  , सवाल करना  , बचपन खोया नहीं है  , न ही बचपन के सवाल , अगर ये इंसां होना है  , तो मुझे मंजुर है , मेरा सवाल क्या हो  ? (थियेरी सेंग( http://www.thearyseng.com/ ) , जो "‌daughter of killing fields" के नाम से भी जानी जाती हैं, सात साल की उम्र में अपने मां -पिता के साथ पांच महीने जेल में रहीं. उनके मां -पिता दोनो, खमेर रुज़ के अत्याचार को बलि चड़ गये. वहां से बच निकलने के बाद, और अमेरिका में अपना शिक्षण पुरा करने के बाद अब थियेरी वापस कम्पुचिया(Cambodia) आकर 1975-1979 के समय में खमेर रुज़ के समय हुए जुल्म के जिम्मेदार लोगॊं को कटघरे में लाने में जुटी हुई हैं)

चिड़िया चुग गयी. . . .

चिड़िया चुग गयी. . .    और चिड़ियाँ दाना चुग रही हैं,  बेगैरत जमीन से, उनें क्या, खुन से सनी,  चीखें जो समा गयीं तहों में, हज़म कर गयीं तारिख को, और क्या मज़ाल है, कि दरार एक भी नज़र आये, परेशानी कि, हंस कर बोली चिड़िया, बख्श दो, इंसान होना बीमारी है, इसलिये कहीं जंग, अभी भी ज़ारी है, और इलाज़ नामुमकिन है, सोच सकते हो, इस बात का अभिमान है, आसमान बचाये, अरे! यही तो बीमारी का नाम है! (Toul Slang Genocide Museum में इतिहास पर आंसु बहाते पर्यटक, और अपनी सच्चाइयॊं का दाना चुगती चिड़ियॊं को देखकर) 

"द किलिंग फ़ील्ड़स"

आज एक शहर देखा, या यूँ कहिये एक युग पिया ज़हर देखा, खोपड़ी फ़िर गयी? ज़ी नहीं, कहीं गिर गयी,  अनगिनत पहचानें, गुमशुदा रिश्ते, और एक सपना सब कुछ बराबर करने का, दफ़न सारे सच जो सीढियां बनाते हैं, पीढियाँ, उस ज़हर के साथ चल रही हैं,  और कौन जाने किन कोनों में, पल रही हैं, गल रही है,  सच्चाईयां लगातार, और नशे में दर्द तलाशते हैं, लोग, है खामोशी, जो सब को बहरा कर दे, और गुँगे, सुनने का अधिकार नहीं रखते वक़्त गुजरा है, लोगों को हाथ मिले हैं, साथ कुछ उम्मीदें, मुमकिन करती सुबह का शाम होना, हिम्मत, हार गयी है मायुसी, निराशा लाचार है, जिंदगी ढर्रे लग गयी है, कुछ आवाजों को छोड़, जो दर्दे से तड़पती हैं, ड़रती नहीं रोशनी को एक सुराख काफ़ी है, न उगे सुरज़, कुछ लोगों को, सुबह गरम करने को, सामने बुझी राख ही काफ़ी हैं! ( कम्पुचिआ के Phnom Penh शहर में किलिंग फ़ील्ड़ और टोल स्लंग/S-21 जेल जो कभी एक स्कुल हुआ करता था देखने के बाद)