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हकीकत की माया!

वो इंसान ही क्या जो इंसान न हो?
वो भगवान ही क्या जिसका नाम लेते जुबां से लहुँ टपके?
वो मज़हब ही क्या जो इंसानो के बीच फरक कर दे?
वो इबादत कैसी जो किसी का रास्ता रोके?
वो अक़ीदत क्या जो डर की जमीं से उपजी है?
वो बंदगी क्या जो आँखे न खोल दे?
वो शहादत क्या जो सिर्फ किसी का फरमान है?
वो कुर्बानी क्या जो किसी के लिए की जाए?
वो वकालत कैसी, जो ख़ुद ही फैसला कर ले?
वो तक़रीर क्या जो तय रस्ते चले?
वो तहरीर क्या जिससे आसमाँ न हिले?
वो तालीम क्या जो इंक़लाब न सिखाये?
वो उस्ताद क्या जो सवाली न बनाये?
वो आज़ादी क्या जिसकी कोई जात हो?
वो तहज़ीब क्या जिसमें लड़की श्राप हो?
वो रौशनी क्या जो अंधेरो को घर न दे?
वो हिम्मत क्या जो महज़ आप की राय है?
वो ममता क्या जो मजहबी गाय है, बच्ची को ब्याहे है?
वो मौका क्या जो कीमत वसूले?
……
फिर भी सुना है, सब है,
इंसान, भगवान्, मज़हब, इबादत,
क्या मंशा और कब की आदत!
अक़ीदत और बंदगी,
तमाम मज़हबी गंदगी!
शहादत ओ कुर्बानी,
ज़ाती पसंद कहानी!
वक़ालत, तहरीर, तक़रीर,
झूठ के बाज़ार, खरीदोफरीद!
तालीम और उस्ताद,
आबाद बर्बाद!
आज़ादी,गले पड़ी,
तहज़ीब सर चढ़ी!
रौशनी बस चमक रह गयी
ममता अपनों में बंधी!
मौके बड़े शहर बाज़ार बने..
….
जी हाँ सब मौजूद है,
यहीं, सामने आँखों के,
हक़ीकत की माया में
बंधे, हर सच के लिए,
जामा ज़हन का लिए,
जिसे हम सोच कहते हैं,
आदर्श, जीवनमूल्य,
गीता का ज्ञान,
किसी को बाईबल,
किसी को कुरान,
टेलीविज़न हर शाम!


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हाथ पर हाथ!!

मर्द बने बैठे हैं हमदर्द बने बैठे हैं, सब्र बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अल्फाज़ बने बैठे हैं आवाज बने बैठे हैं, अंदाज बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! शिकन बने बैठे हैं, सुखन बने बैठे हैं, बेचैन बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अंगार बने बैठे हैं तूफान बने बैठे हैं, जिंदा हैं शमशान बने बैठे हैं! शोर बिना बैठे हैं, चीख बचा बैठे हैं, सोच बना बैठे हैं बस बैठे हैं! कल दफना बैठे हैं, आज गंवा बैठे हैं, कल मालूम है हमें, फिर भी बस बैठे हैं! मस्जिद ढहा बैठे हैं, मंदिर चढ़ा बैठे हैं, इंसानियत को अहंकार का कफ़न उड़ा बैठे हैं! तोड़ कानून बैठे हैं, जनमत के नाम बैठे हैं, मेरा मुल्क है ये गर, गद्दी पर मेरे शैतान बैठे हैं! चहचहाए बैठे हैं,  लहलहाए बैठे हैं, मूंह में खून लग गया जिसके, बड़े मुस्कराए बैठे हैं! कल गुनाह था उनका आज इनाम बन गया है, हत्या श्री, बलात्कार श्री, तमगा लगाए बैठे हैं!!

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हमदिली की कश्मकश!

नफ़रत के साथ प्यार भी कर लेते हैं, यूं हर किसी को इंसान कर लेते हैं! गुस्सा सर चढ़ जाए तो कत्ल हैं आपका, पर दिल से गुजरे तो सबर कर लेते हैं! बारीकियों से ताल्लुक कुछ ऐसा है, न दिखती बात को नजर कर लेते हैं! हद से बढ़कर रम जाते हैं कुछ ऐसे, आपकी कोशिशों को असर कर लेते हैं! मानते हैं उस्तादी आपकी, हमारी, पर फिर क्यों खुद को कम कर लेते हैं? मायूसी बहुत है, दुनिया से, हालात से, चलिए फिर कोशिश बदल कर लेते हैं! एक हम है जो कोशिशों के काफ़िर हैं, एक वो जो इरादों में कसर कर लेते हैं! मुश्किल बड़ी हो तो सर कर लेते हैं, छोटी छोटी बातें कहर कर लेते हैं! थक गए हैं हम(सफर) से, मजबूरी में साथ खुद का दे, सबर कर लेते हैं!