ख़ामोशी बढ़ती है, तो ज़हर बन चढ़ती है,
ज़हन ओ जिस्म पे अपना जामा जड़ती है!
सुन तो लेते है लोग पर गुन नहीं पाते,
बोल देते है बात जो हम सुन नहीं पाते!
अपनी समझें कि, कही को माने,
जानें किसको, किसको पहचानें!
खुद से है कई बातें कह नहीं पाते,
अपनी ख़ामोशी भी सह नहीं पाते!
तमाम सच सबके एक अपनी हक़ीकत,
इतने धारे हैं कि हम बह नहीं पाते!
जिसे देखो पतवार लिये खड़ा है
ड़र के मारे हम किनारे नहीं जाते!
मिलते हैं सब कोई मक़ाम बनकर,
काश कोई आये बस कान बनकर!
हम से भी ज़रा रायशुमारी हो,
जिक्र हो जब बात हमारी हो!
पहले कुछ बात हो,
फ़िर बात को साथ हो,
फ़िर कहना के साथ,
सफ़र को नहीं आते!
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