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सुमित सुमीत!

कथनी से करनी बड़ी, कहे दास कबीर,
यूँ प्यार से नफ़रत जीते वो ही सच्चे वीर!

वो ही सच्चे वीर कि जो दर्द हो जाएं,
आँसू जिनके चोट का मलहम बन जाएं!

बने चोट का मलहम चलो ये रीत चलाएं,
नफ़रत के मारों के चलो सुमीत बन जाएं!

बनें सुमीत सब ऐसे कोई न पड़े अकेला,
इस दुनिया को करे बहनचारे का खेला!

बहनचारे का खेला नहीं सिर्फ़ ये भाईचारा,
शामिल हों इसमें सब, नहीं खासा-प्यारा! 

हर कोई खासा-प्यारा यही तो है मानवता,
यकीन मानो है हम सब में ये क्षमता!

क्षमता कितनी हम सब में ये न पूछो,
बुद्ध हुए अपने ही बीच, कबीर सोचो!!

(एक इंसान से मुलाकात हुई, बात हुई, इंसानियत पर हुए ज़ख्मों का दर्द उनकी आंखों में नज़र आया, वो भी एक डर होता है जो हाथ आगे बढ़ाता है गले लगाने के लिए, ये बात समझ मे आई)

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हाथ पर हाथ!!

मर्द बने बैठे हैं हमदर्द बने बैठे हैं, सब्र बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अल्फाज़ बने बैठे हैं आवाज बने बैठे हैं, अंदाज बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! शिकन बने बैठे हैं, सुखन बने बैठे हैं, बेचैन बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अंगार बने बैठे हैं तूफान बने बैठे हैं, जिंदा हैं शमशान बने बैठे हैं! शोर बिना बैठे हैं, चीख बचा बैठे हैं, सोच बना बैठे हैं बस बैठे हैं! कल दफना बैठे हैं, आज गंवा बैठे हैं, कल मालूम है हमें, फिर भी बस बैठे हैं! मस्जिद ढहा बैठे हैं, मंदिर चढ़ा बैठे हैं, इंसानियत को अहंकार का कफ़न उड़ा बैठे हैं! तोड़ कानून बैठे हैं, जनमत के नाम बैठे हैं, मेरा मुल्क है ये गर, गद्दी पर मेरे शैतान बैठे हैं! चहचहाए बैठे हैं,  लहलहाए बैठे हैं, मूंह में खून लग गया जिसके, बड़े मुस्कराए बैठे हैं! कल गुनाह था उनका आज इनाम बन गया है, हत्या श्री, बलात्कार श्री, तमगा लगाए बैठे हैं!!

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