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जनवरी, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नये अंदाज़!

फिसलते लब्जॊं को थामना पड़ता है, लम्हॊं का यूँ ही शायरी नाम पड़ता है कहाँ जाना है?.. छूने को एहसास करें, चलने को ही प्यास करें, चलो नए अंदाज़ करें, अब सपनो को पास करें नहीं तो .. मुश्किल होने से, मैं कुछ कम नहीं होता,  गमगीन हो साये, पर मैं  rum नहीं होता मुसाफिर होने के मेरे अंदाज़ ऐसे हैं कोई मिले-बिछडे मैं अधुरा कम नहीं होता सुना है ? क्या बात है कि अपने शब्दॊं का मैं साथ नहीं देता ? उन लम्हॊं पर क्या गुजरे जिन्हें मैं रात नहीं देता, आपकी आवाज़ मेरे कहने को अंजाम देती है वर्ना ये शायर अज्ञात को कभी मात नहीं देता! तबज्ज़ो का शुक्रिया, वर्ना हर कोशिश आवाज़ नहीं होती! कोशिश ... कब निकले तेरे अरमान,  की ख्वाइश बन गयी आसमान, इरादॊं  के सफ़र की जरा ऊंची कर उड़ान  क्यॊं परेशां होते है शब्दॊं के पहलवान, शायरी बेहतर अगर, लफ़्ज़ॊं की वर्जिश में आये जान उम्र का काम बड़ना है बड़ेगी, मुश्किल होगी, गर तू लम्हे खर्च करने से डरेगी   तजुर्बे ज़िन्दगी को कहीं पुराना ना कर दें चल आज फिर कुछ नया कर दें!   Embrace all new experiences with a smile...

हमारी क्या प्रकृति है?

क्या निसर्ग से हमारा कोई रिश्ता है? पंछी के कलरव से नदिओं की कल-कल से पत्तों की सर-सर से दिल मे कोई हलचल है! नदियां तो सब पाक साफ़ हैं हैं अब भी? पवित्र ! पर साफ़ कहाँ... .? चाहे गंगा कह लो या थेम्स नील, राएं, मिसी सिपी या वोल्गा इन सब से हमारा क्या सम्बन्ध है? पेड़ों के बढने से चिड़ियों के उड़ने से ....  उन सब से जो जीवित भी(तो) हैं जीवंत भी क्या वो सब हमारा हिस्सा नहीं ? या यूँ पूछिए क्या हम उस सब का हिस्सा नहीं ? तो क्या हम निसर्ग नहीं ?..... ( जिददु कृष्णमूर्ति के शब्दों से अनुरचित )

अंदाज़ ए नज़र या नज़र अंदाज़ !

कहने को तो जहाँ है, फिर भी ना बाहर आये क्यों.. करीब सारे निशां है, गोया नजर न आये क्यों... खुद पर मुसलसल नजर है, कहे मोहब्बत कोई ... नज़दीक आने का अंजाम, खामियां ही नजर आये क्यों... हमारी शिकायत हमसे ही होती है बारहा... मुश्किल में मुश्किलें है, खुद को आसां बनाए क्यों... यूँ ही नहीं की हमको कोई शिकायत नहीं होती ... जो जख्म नजर नहीं आते उनको भला दिखाएँ क्यों... यूँ तो हमको भी शिकवे हैं छोटी-बड़ी बातों के, यूँ उनको सब मालूम है और हम बतायें क्या! हमारी भी खूबियां हैं  वो कहते बताएं क्या, दिल में दी है जगह अब सर पर बैठायें क्या! रोज किसी न किसी बात पर प्यार आता है, आदत सी पड़ गयी है, अब इसमें‌ बतायें क्या!! इरादे यतीम ना होंगे अज्ञात यकीं की जमीं पर.. बंजारे हों जब मिज़ाज़ के, सफ़र मुकां पर आये क्यों...

अधूरे लम्हे!

 सुबह खो गयी कहीं सुबह होने में  वक्त गुजरा नहीं, फिर क्योँ शाम होने में ?  करवटें अकेली  रह गयी कहीं कोने में  उम्र गुजरेगी  ये भी, वो एक रात होने में  तमाम  मुश्किलें मेरे गुमनाम  होने में  वो रास्ते चलूँ ,जो गुजरें मेरे खोने में  दूरियां बढती हैं कितनी  नज़दीक  होने में  खो रहे हैं कहीं, रिश्ते उम्मीद होने में आप भी शामिल हैं मेरे होने में खो गए हैं कहीं मेरे होने में देर नहीं लगती भटक जाने में, भुलावे है सफ़र के बिछौनों में! ये क्या की लगे हैं रास्ते बिछाने में  थक गए, जो अब सफ़र है होने में  मैं हूँ मसरूफ अपने अधूरे होने में मोड़ चाहिए रास्ते को सफ़र होने में

खोये की खोज!

रात आई सपनों के चल पड़े कारवां, अब ढुँढे तुमको इसमें हम कहाँ रखा था पलकों में, कब छलक गए तुम तक पहुँचने में कितने फलक गए चलो इस सफ़र को अब करें आसमान ..........अब  ढुँढे  तुमको इसमें हम कहाँ... साथ थे लम्हे कब एहसास हो गए हमसफ़र कैसे सफ़र की प्यास हो गए गुजरे हुए रास्तों को करें आशियाँ ..........अब  ढुँढे तुमको इसमें हम कहाँ... कल थे अरमान फिर क्यों बिखर गए कौन से थे मोड़ जो अपनी नजर गए सोच को अपनी करें जरा आसान .............अब  ढुँढे तुमको इसमें हम कहाँ...

शुरुवात अधूरेपन की

आज एक और शुरुवात, अब और भी कुछ अधूरा होगा आपका साथ है तो कौन जाने किस करवट सबेरा होगा बात दिल कि क्यों किसी तक पहुँचाएं, जो मेरा है वो सच जरूर तेरा भी होगा! कहते हैं सदियों से कि दिया तले अंधेरा होगा, लाजिम है देखने वाली नज़रों को फ़ेरा होगा? मैं बस अपनी समझ का ठेका लूँगा इसमें क्या किसी से राय-मशवरा होगा? अपने कई अंदाज़ों से मैं भी अजनबी हूँ, दो मुलाकात में न सोचें एक सच पूरा होगा! अक्सर वो मुझे मेरी कमियाँ गिंनाते हैं, अधुरा करते हैं ये सोच के कि पूरा होगा! यूँ नहीं कि अपनी खामियों को अज्ञात हैं पर सफ़र में वो सामान नहीं मेरा होगा!