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बहना-ठहरना

नदियां अगर साहिल को तलाशें तो क्या कभी बह पायेंगी और समंदर बन पायेंगी? स्थिरता, ठहराव ये सब बस मरुस्थल की परिभाषा है जो प्यासा रहना भूल गया पृथ्वी के एक टुकड़े का अर्थहीन सन्यास सब से अलग रहना यानि खुद को भ्रम में रखना सब में रहकर जो अलग हो तो कुछ बात बने  लालसाओं से दूर जाना अलग लालसाओं को ठुकराना अलग नदी से सीखो, उसे अगर  किनारे पर पहुँचने का लालच आ जाये तो तालाब बन जाये, संमदर कभी नहीं रुको नहीं, नदी की चाल पहचानो बहो नहीं_ _ _ बहना सीखो  स्थिरता!  रुकने में नहीं, ठहरने में नहीं बहाव के रुख को पहचानने में है स्वयं एक धारा बनने में है इस विचार को उस विचार से मिलने दो धाराओं के मेल को नदी बनने दो रुको नहीं बहो आज बनती है नदी, तो कल संमदर बनने दो !

रिश्ते, कड़वाहट और दो घूँट ज़हर!

तमाशा सारी बातॊं का, मेला रिश्ते नातॊं का बड़े काम का है समझो अब महकमा लातॊं का वो अपने, काम के हैं क्या, वो अपने काम के है क्या? सब अपने, नाम के हैं क्यॊं, सब अपने नाम के हैं क्या? पैदा किया तो बाप होते हैं, जबरन 'आप' होते है रिश्तॊं के नाम से न जाने कितने पाप होते हैं कभी पुरे नहीं पड़ते, अजीब उनके माप होते हैं वो "बड़े" बनते हैं उम्र के और हम खाक होते हैं  नौ महीने का अचार, कह दिया इस को मां का प्यार अपनी बात को आँसू चार, लाचार ममता या व्यापार? ममता है तो क्यॊं सिर्फ़ 'अपने' नज़र आते हैं? क्यॊं कर रिश्ते सारे खून से लकीरें बनाते हैं?  त्याग भी है और आँसू भी, और बेबसी आदत है, दुनिया ज़ुल्मी है, और हरदम इसकॊ दावत है! मर्द को जात कैसी, भुत को बात कैसी, बिन अंधेरॊं के रोशन कायनात कैसी?  आप तो मर्द है, ये मसला बड़ा सर्द है, ये कैदे उम्र है और लावारिस सब दर्द हैं! रिश्तॊं के आचार को मसाला नहीं लगता, ऎसे भी भुखे हैं कोई निवाला नहीं लगता! सारे रिश्ते खुन के, रिसते हैं तमाम उम्र, बेखबरी जख्मॊं से कैसे हो वहशियत कम! अपनी मुस्कराहट से

तलाश, तलाश की!

वो रोशन रात थी या उज़ालॊं की लाश थी बुलंद इमारत, कामयाब इबारत, अंदाज़ जश्न के, और इतनी रोशनी कि सच्चाई जल गयी, ठिठुरती बेबसी अधनंगी सी, कैसे पल गयी, "काश” होती एक जिंदगी, जैसे गड़्ड़ी से फ़िसल गया ताश कोई, बेसब्र नज़र इस आस में‌, कि मिलेगी तलाश कोई, और हम बस चल रहे हैं, एक और शाम, और हम निगल रहे हैं, अंदाज़ भी है, एहसास भी, इरादे भी, फ़िर भी सहारा दे नहीं पाती, तिनका हुँ? पर खुद भी बह रही हुँ, किनारा होने को . . . . क्या नहीं दे दुं! नज़रें बेबस से नहीं मिलीं, पर खुद की बेबसी संभल गयी, एक रास्ता नहीं मिला, पर अपनी सुबह को रोशनी दिखा दी, कैसे कहुँ मज़बुरी थी, मेरी नज़रॊं ने आज़ मेरी उम्मीदें जगा  दीं ! आमीन ! (किसी की एक शाम की चहलकदमी से चुराये हुए ज़ज्बात)

आईये ! / The Invitation!

मुझे मत बताओ कि जिंदगी कैसे कटती है  ये बताओ कि अंदर से आवाज़ क्या आती है, और क्या वो सपने देखने की हिम्मत तुम में है, जो तुम्हें अपने दिल की तड़प तक ले जायें?  मुझे अपनी उम्र कि लंबाई नहीं बताओ, ये कहो कि मुरख बनने का जोखिम उठा सकते हो? प्यार के लिये, सपनॊं के लिये, जिंदगी जीने के रोमांच के लिये!  क्या फ़रक पड़ता है कि तुम्हारे ग्रहॊं की क्या दशा है ये कहो कि, 'अपनी दुखती रग' पर तुम्हारा हाथ है क्या? जिंदगी की ठोकरॊं ने तुम्हे खुलना सिखाया है? या आने वाले जख्मॊं के ड़र से तुम ने अपनी पीठ फ़ेर ली है? जिंदगी से!  जरा ये बताओ कि दर्द को, मेरे या तुम्हारे, बिना कांटे, छांटे, छुपाए, निपटाये, क्या तुम अपने साथ रख सकती हो? जरा सुनूँ, क्या तुम आनंदित हो, मेरे या तुम्हारे लिये! और क्या झुम सकते हो ऎसी दीवानगी से, कि तुम्हारे हाथ-पैर के छोर हो जायें भाव-भिवोर बिन संभले, बिन समझे, बिन जाने, कि इंसा होने कि हदें होती हैं!  तुम जो कहानी मुझे सुना रहे हो वो सच हो न हो, ये कहो कि खुद का सच होने के लिये, क्या किसी और की नाउम्मीदगी बन सकते हो, और अपनी अंतरात्मा को सच होने

ईबारत ए सफ़रनामा

बैठेंगे किस करवट, सौदे सफ़र के, रास आयेंगे सवालात दर-बदर के? ज़िंदगी आसान करते हैं मुश्किलें मेहमान करते हैं जो करें ज़ी-जान करते हैं वो और हैं जो नाम करते हैं!  निकल पड़े एक और ड़गर, एक और सफ़र झोली भी बदल गयी और नया समान भर, इतनी मुलाकातें जज़्ब है दिलो-दिमाग के घर घर जायेंगे पर अब वो अज़नबी शहर-नज़र  मुसाफ़िर कदमों को गिनें, कि रास्तों को चुनें, गुजरें अज़नबी बन कि, नये रिश्ते कुछ बुनें! फ़िर नया सामान है, कंधों में वही जान है, कदम चल रहे हैं अपनी धुन, और क्या काम है? बह गये पानी में सारे शिकन पेशानी के, युँ मिल गये रास्ते, सब को आसानी के!  युँ भी गुजरे हैं रास्ते, रस्तों से आज़, अपनी ही पहचान का कहां अंदाज़, बुंदें समंदर हुयी जाती है, मज़े लुट रही हैं, हर कदम हकीकतें आज़! आवारा कभी भी थोड़े कम न हो हालात कभी ज्यादा गम न हो अज़नबी रास्तों की मुश्किलें अच्छी, ज़ज्बा-ए-बंजारगी कभी कम न हो! हमसफ़र हैं पर साथ नहीं देते, रस्तों को ज़जबात नहीं देते रुकी हुई हैं कितनी सुबहें, क्यों कदमॊं को अंदाज़ नहीं देते? कुछ शोर है कुछ खामोशी भी, कुछ होश है, और मदहोशी भी, अकेले सब के साथ हैं,

इमारत-ए-सफ़रनामा

आ पहुंचे कुछ अज़नबी शहर,  कुछ अंजान ड़गर, ये नगर 'बुद्धू' बोल रही, पहचान कर, हर हलचल,औ शामो-सहर कितनी दीवारें दुनिया में,  और कितने रास्ते गुमशुदा, रुकने को तैयार सब हैं,  पर अपने सफ़र है अलहदा! कुछ इमारतें, कुछ इबादतें, कुछ ईबारतें जो अनपड़ी, शानो-शौकत सामने, पसीनों कि दास्तां नदारतें कितने यकीं है दुनिया में, किस किस का यकीं करें, चलते है जिन रास्तों पर, क्यों न उनको हसीं करें काम करते हैं, दाम करते हैं, मुश्किल किसी की आसां करते हैं, खेलती है जिंदगी जिनसे और ये खेल तमाम करते हैं! जिंदगी निकली है फिर रास्तों की तलाश में फूंक रही है जान जैसे, अपनी ही लाश में कितने आसां आसमान है गर पैर जमीं न हों यतीम हकीकतें हैं, पर किसको यकीं न हो! आज़ादी के बरबाद है,क्या अपने अंदाज़ हैं पैरों को जमीं नहीं है, और हालात बाज़ हैं!

कौन सी उड़ानें !

हम अज़नबियॊं की उड़ानॊं से भ्रमित अपने धरातल से अनिभिज्ञ , अपनी आंखॊं पर रंगी पर्दे ड़ाले  , अपने इन्द्रधनुष की अनुभूति से अंजाने  ! अपने जीवन की रफ़्तार बढाते  , चले दुनिया से कदम मिलाने , बिन देखे , बिन सोच विचारे अंजाने पंखॊं के लाचारे  ! दुनिया एक हो रही विज्ञान से , दुरियां मिट रही आसमान से , हम भी बढ सकते हैं अभिमान से लेकिन सिर्फ़ अपनी पहचान से  ! प्रगति की ये परिभाषा नहीं  , कि हममें कोई प्यासा नहीं , इंसान की जो प्यास है वही प्रगति का इतिहास है   ! पैसा सिर्फ़ एक ज़रुरत है  , और जरुरत आदमी की कमज़ोरी कमज़ोरी हमारी पहचान है , आखिर किस बात का अभिमान है  ? अपनी खुशी को लेकर सब परेशान  , ये हमारी तरक्की के विचित्र आयाम  , जिसके पास काम , करे आराम कैसे और जो बेकाम , वो करे आराम कैसे? बंदुकें सरकार बन गयी हैं  , धर्म की राहें दीवार बन गयी हैं  , इंसान की खोज , ग़ुमशुदा की तलाश जो ढुंढे उसे वही    ईनाम ! मैं अपने विचारॊं का कृतज्ञ मेरे रास्ते हैं पृथक  , अंधी दौड़ में , मैं नहीं शामिल मेरा

खुली दुकान है!

छलकते लम्हे वक्त को मुँह चिड़ाते हैं, घड़ीयों के चक्कर मे कहां कभी आते हैं! कांटे घड़ी के क्या समझें वक्त की नज़ाकत, युँ चल रहे हैं धुन में जैसे सदियॊं की कवायत! भगवान को भागवान करते हैं युँ जीने का सामान करते हैं अपने यकीन से जुदा हैं लोग इबादत को दुकान करते हैं! तन्हाई की दुकानें कितनी, खरीददार कोई नहीं, जज़बातों के बाजार में, अपना यार कोई नहीं ! ससुरे सच सारे, और हम बेचारे, लगाये ताक बैठे हैं देखें अब बारी आयी है सो,अब तक तो पाक बैठे हैं!  हालात सारे बेहया ससुर बने बैठे हैं हाल हमारे नयी दुल्हन बने बैठे हैं! बातॊं-बातॊं में आ गये आसमान तक, युँ ही कुछ देर और कुछ आसान कर! दुआ है कि दुनिया थोड़ी काली हो, रंग कोई भी, गाली न हो सच को इश्तेहार नहीं लगता, और रंग को कोई माली न हो! रंग बिखरे हैं कितने मुस्कानों में, जो रह जाते हैं अक्सर छुप कर बहानॊं में, चलो लटका दें कुछ मस्तियाँ दुकानों पे,   नज़र कहाँ जायेगी आसमानों पर!  वक़्त खोटा है इसके झांसे में न फ़सिये, दिन गिनना छोड़िये, जी भर के हंसिये! मैं और मेरी आवारगी, हालात की कारागिरी, अजनबी मौके हर मोड़ पे,क्या हसीं बेचारगी!

युँ हो कि !

उड़ो उस सपने की तरह          जो इस धरातल पर पला है बहो उस खुशबू की तरह         जो कुछ मांगती नहीं चलो उस लहर की तरह,         जो जीती है, हर पल के लिये         अंत की तस्वीर आखॊं में लिये  गिरो उस बीज़ की तरह         जो बादल के बरसने और         सुरज के चमकने का कारण बनता है रुको तो ऎसे कि किसी के          चलने का कारण बनो मुस्कराओ, मदमाओ          आंधी में झुमते तरुवर की तरह बहक जाओ भी तो          पैरॊं में अपनी जमीं को लिये पहचान हो अपनी ऐसी कि          कहीं भी खो जाओ बन के नदी सागर को भिगो जाओ!

गाली-ए-दीवाली! (the curse of Diwali)

फ़िर वो वक्त कि निकले मुहं से गाली, आ गयी फ़िर से साली दीवाली, अब रात को सुरज चमकेंगे, और हवा को सबक सिखाया जायेगा, कानों की वाट लगायी जायेगी, और कमीनी आतिशबाज़ी अंधियाएगी! पैसा और बेशरम बन जायेगा! खाली जेबों को मुंह चिड़ायेगा, शुभकामनायें बिन बुलाई मेहमान होंगी, कपटी इरादों में नयी जान होगी,  ताकतवरों को रिश्वत देने का मौसम,  फ़िर चाहे उनका नाम भगवान हो, या पहलवान, सबकी आंखों में सरेआम लक्ष्मी नंगा नाच करेंगी, उद्दंड़ ईमान की बोली होगी! गंवार बच्चों के पसीनों की लड़ी  अमीर अंहकार की बलि चड़ेंगी, अगली सुबह मिलिये, हमारी गौरवपुर्ण संस्क्रती, कचरा बन गलियों में धुल चाट रही होगी, और कुछ बेगैरत कमरें उन में, अपनी नालायक किस्मतें तलाश रही होंगी! और जब शाम यौवन पर आयेगी, तो सोलह से चालिस की कुल्लछिनियाएं, लाल बत्तीयों वाली सड़कों पर, ललचाने वाला लाल लगाकर बड़ी ललायत से लचकती कमर और लुके-छिपे कमरों की लालसा जगाकर कितने मां के लालों की द्रोपदी बनेंगी, अपने "लाल" को निर्वस्त्र करके, समाज़ की गाली होंगी, और अनगिनत कुंठाओं की दीवाली होंगी!   इस उम्मीद से की मुठ्ठी

कौनसा दर्द!

कितना दर्द, रीढ़ की हड़्ड़ी से दोस्ती कर, सारे सवालॊं को धमकाता हुआ, दुनिया की रीत की रोटी, खाने को उकसाता हुआ! जो होता आया है वही कहो, जो धागा मिलता है उसी को बुनो जो रास्ता जाना-माना(पुराना) है, उसी को चुनो,  दर्द जैसे कुछ कम था सो, रिश्ते,प्यार, और दोस्ती सब अपना फ़र्ज़ करते हैं, समीकरण कहते हैं, कर्ज़ करते हैं!  शुक्रगुज़ार हुँ, या एहसानमंद? मुंकसिर-मिज़ाजी(humility) मेरे सवालों को तनहा न कर दे,  दर्द और भी हैं शरीर के सिवा, उन सवालों के जो गहरे जाते हैं रुह को चुभते हैं और जिनके नुस्खे नहीं आते,  मेरे रास्तों के शौक ही ऐसे हैं, एक होने को चला हुँ, और अकेला हुँ, सब की नसीहत, जिम्मेदारी! कहते हैं भाग रहा हुँ, क्या अर्ज़ करुं, सदियॊं का सफ़र है, और मैं अभी-अभी जाग रहा हुँ!  (एक सहपाठी के दर्द के साथ एक होने की गरीब कोशिश,जो हाल में रीढ़ पर हुए एक ऑपरेशन से संभल रहा है)

अपने गिरेबान!

कहां रवि और कहां कवि एक अपनी ही आग में जलता है  , उसे क्या खबर कि  , उसी से जग चलता है ? दुसरा कहने से ड़रता है  , सीधी बात , घूमा - फ़िरा के  , चिंगारी पानी में लपेट के  , प्रवाह के वेग को शब्दॊं में समेट के  , और उम्मीद ये , उसकी आग दुसरों को जलायेगी  , चिंगारी एक दिन आग बनायेगी  ,    और वो अपने अहं की चट्टान चढ खुद की पीठ थपथपा कामयाबी अपने सर लेगा  ``````````````````````````````` और एक तरफ़ सुरज़ जो कल के , दू धदांत वाले गुमनाम बादल को भी गुज़रने देते हैं , चाहे वो उन्का मुंह काला कर के गुजरा हो शर्म से बादल ही पिघल जाते हैं  , और सावन के दिन आते हैं  , उन दिनों की ही  , कितने कवि रोटी खाते हैं और उनमें सुर बिठा  , कितने गले इतराते हैं और उस पर ये दावा  , जहां न पहुंचे रवि , वहां पहुंचे कवि ? मुर्खता या अंहकार  , कवि अंधेरों में अपनी रोटी सेंकते हैं  , चाहे वो खुद के हों , या दुनिया के और रवि अंधेरों को आज़ाद छोड़ता है अपने समय से आता है , आंखॊं पर पट्टी नहीं है  , जानता है , आखिर अंधेरा भी अपनी जगह पर

सच से साक्षात्कार।

पेड़ों में खामोश ठंड़क,  और साथ में, कलकलाती कोलाहल धारा, आसमान को जमीं करते पाइन पैरों तले जमीन के एहसास से दुर, पेड़ों पर जीवित मशरुम को खाती , काली गिलहरियां, एक दुसरे के पीछे,  पेड़ के उपर नीचे, टेढे-मेढे रास्तों पर सीधी चलती, और उस पेड़ से फ़ुदकती रोबिन, या शायद रोबिन जैसी, ठंडी खामोशी, और उसे और खामोश करती पहाड़ी बर्फ़ीली धारा, प्यार, स्रजन, और विनाश, सब यहीं मौज़द था संकेत में नहीं , सोच में, एहसास में नहीं सच में, साथ में, हाथ में (जिद्दू क्रष्णमुर्ती के शब्द, मेरी नज़र में)

उंसीयत

बांध लो तो मैं हुं , छोड़ दो तो मेरी उंचाईंयां , किसने समझी जहां में उंसीयत की गहराईयां। रोक लो तो मंजिल , साथ दो तो रास्ता , जिंदगी के सफ़र की हैं बड़ी दुश्वारियां , चल रहे तो सफ़र है, रुके गये मकाम कोई, हाथ में बस हाथ है, क्यों और सामान कोई? धुप जलने को नहीं , न छांव बुझने को , पनपने देती नहीं हमें रिश्तॊं की परछाईंयां। आज़ तुम खफ़ा हो कल हमारी बारी है , आसां नहीं समझना रिश्तॊं की बारीकियां। मेरी खता नहीं , कहते हैं वो , मेरी भी नहीं , ले डूबेगी उंसीयत को अंह की बीमारियां। जमीं - जमीं रहे और हो आसमां बुलंद। उंसीयत एसी जो करे दो जहां बुलंद।। ठहर जाये किसी वज़ह किसी मोड़ पर ये रिश्तॊं की पहचान नहीं। न उड़े पंछी तो आसमान नहीं , बिन उंसीयत के बागवां नहीं।।  इससे अच्छी क्या बात हो,  अपना साथ ही हालात हो!