कहां
रवि और कहां कवि
एक अपनी
ही आग में जलता है ,
उसे क्या
खबर कि , उसी
से
जग चलता
है?
दुसरा
कहने से ड़रता है ,
सीधी
बात,
घूमा-फ़िरा
के ,
चिंगारी
पानी में लपेट के ,
प्रवाह
के वेग को शब्दॊं में समेट के ,
और उम्मीद
ये,
उसकी
आग दुसरों को जलायेगी ,
चिंगारी
एक दिन आग बनायेगी ,
खुद की
पीठ थपथपा
कामयाबी
अपने सर लेगा ```````````````````````````````
और एक
तरफ़ सुरज़
जो कल
के, दूधदांत
वाले
गुमनाम
बादल को भी
गुज़रने
देते हैं, चाहे
वो उन्का
मुंह काला कर के गुजरा हो
शर्म से बादल ही पिघल जाते हैं ,
शर्म से बादल ही पिघल जाते हैं ,
और सावन
के दिन आते हैं ,
उन दिनों की ही ,
और उनमें
सुर बिठा ,
कितने
गले इतराते हैं
और उस
पर ये दावा ,
जहां न
पहुंचे रवि,
वहां
पहुंचे कवि?
मुर्खता
या अंहकार ,
कवि
अंधेरों में अपनी रोटी सेंकते
हैं ,
चाहे
वो खुद के हों, या
दुनिया के
और रवि
अंधेरों को आज़ाद छोड़ता है
अपने
समय से आता है,
आंखॊं
पर पट्टी नहीं है ,
जानता
है, आखिर
अंधेरा भी
मानता
है,
जो अंधेरा
है, सो
सवेरा है !
और कवि
लगे हैं सेंध
लगाने में
अपने
कहने को ही, करना
बोलते हैं
और,
दुसरों के कहने
और करने के भेद खोलते हैं !
फ़िर
क्यॊं रवि और कवि को
एक तराज़ु
में तौलते हैं !
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