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अगस्त, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रक्षा बंधन - आँखों को एक और अंधन!

रक्षाबंधन की फिर बात आई,  बन जायेंगे सब भाई, कसाई आज फिर भाई! पत्नियों को मारने वाले, बहनों की रक्षा की बात करेंगे औरतों को बाज़ार में बिठाने वाले भी, अपना माथा तिलक करेंगे सीटियाँ आज भी बजेंगी, फब्तियां आज भी कसेंगी नेक इरादे भी औरतों को 'तुम कमजोर हो' याद दिलाएंगे हाथ में धागा और मुंह मीठा कर आयेंगे ये बंधन कच्चे धागों का है, या जिम्मेदारियों से भागों का है क्या बाजार में बैठी सारी बहने , बेभाई है? या अपनी बीबियाँ मारने -जलाने वाले सब बेबहन? सब कर के सहन, मन में छुपा के सब गहन फिर भी आज के दिन क्यों बनती है तू बहन? ये आशावाद पर विश्वास है या निराशा की ठंडी सांस है ?! डूबते को तिनके का सहारा है या हम में से हर कोई परंपरा का मारा है ? कल फिर से वही दुनिया होगी और वही कहानी आँचल में दूध, और आँखों में पानी, नामर्द मर्दों की बन कर जनानी! कल फिर सड़क से अकेले गुजरती लड़की बेभाई हो जायेगी !

गुजरे लम्हे, बिखरे अशार

रंगों के सवाल या रंगों से सवाल? हकीकी उमीदें या सिर्फ ख्याल? गहरे पैठेंगे या बदल करवट बैठेंगे? तजुर्बे  रास्ता देंगे या पीठ को एठेंगे पलटते रास्ते, थके हुए सवाल, ऊंघती उमीदें, दम तोड़ते ज़ज्बात, बड़ते कदम, ललचाते प्रश्नचिन्ह, नज़र आसमान, ये एहसास एक और सफर नज़र मैं है, एक और कदम असर में है, निकल पड़े हैं फिर रास्तों पे, एक और सुबह सहर पे है जिंदगी निकली है फिर रास्तों की तलाश में फूंक रही है जान जैसे, अपनी ही लाश में ! कितनी सारी उम्मीदें बंध गयी हैं काश में और कोशिशें उलझी हैं अपनी तराश में   गुजरे लम्हे बिखरे अशार, ओर एक अरसा होने को है मायने यतीम घूमते है कितने, यकीं अपना खोने को हैं कलम करने से सब सच्चाई हाथ नहीं होती फिर भी चल दिए कि गंगा पाप धोने को है   भूख पाली है या सिर्फ हाथ फैलाये बैठे हो चादर मिल गयी लंबी तो पैर फैलाये लेटे हो ख्वाब बुने हैं कल के या नींद भरोसे बैठे हो जिंदगी जी रही है तुमको या तुम जन्दगी को जीते हो   एक और रास्ता सफर होने को है, और एक एहसास नज़र हो जायेगा और एक तजुर्बा उम्र होने को है और एक फलक हमजमीं हो जायेगा   मौसम, मुलाका

शहाना

किस का घर है, कौन सा कहर है, दिन में साफ नज़र आता है रात का पहर है आप (शहाना) फिर भी हंस लेते है ये कैसा असर है ...पेश जहर हुआ था आप के पीने में फरक है! नज़र और कदम जब साथ चलते है रास्ते बड़े मुकम्मल मिलते हैं मुश्किल मोड़ पर खुद से नए हो कर मिलते हैं! आईने क्या बताएँगे आप खुद ही समझ लीजे आप खुद कि जमीं है जी भर के छलक लीजे! मुट्ठी में अपनी थोडा सा फलक लीजे आपका हिस्सा है जी भर के हलक लीजे! पसीना सुख जायेगा, अश्कों को पलक लीजे इरादों में अपने थोड़ी और ललक लीजे    ( ये कुछ शब्द शहाना को समर्पित हैं, शहाना पिछले १० सालों से हैदराबाद ओल्ड सिटी में मक्का मस्जिद के बाजु में, अपने १०वर्ग फुट(10 square feet) के घर में रहते हुए(अपनी अम्मी, अब्बा ओर भाइयों के साथ), अमन शांति के कामों से जुडी हुई हैं. उन्होंने १६ साल कि उम्र से स्वयंसेवी बन कर काम शुरू किया था. आज वो भारत के किसी भी हिस्से में जाकर बच्चों, युवा, और शिक्षकों के साथ काम करती हैं. १० दिन पहले जब उनका घर गिरा दिया गया तो वो अपने किस्मत कोसते नहीं बैठी. दुनिया कि तमाम कोशिशें

तलाश

मंजिल कि खबर कैसी, रास्तों का पता क्या? खो जाना कोई मर्ज नहीं, फिर उसकी दवा क्या? क्या समझेंगे जिनको जंजीरें रास्ता दिखाती हैं जिनकी हर सुबह को शाम आती है, उन लम्हों का क्या जो खत्म नहीं होते? उन चोटों का क्या जो कभी जख्म नहीं होते? हर आह का मतलब क्यों? हर वाह का हिसाब क्या? कुछ रस्ते चलने से तैयार होते हैं! और नक्शों पर सिर्फ कल रहता है! सवाल बेमानी है अगर कोई हल रहता है, वो खोज ही क्या जो खजाने पर खत्म हो? रुकिए तभी जब सामने कोई प्रश्न हो??

सवालिया एहसास

नज़रपरस्त है फिर भी यकीं नहीं जाता तारीख रह रह सर उठाती है ख्यालों में सेंध लगाती है वक़्त साथ साथ चलता है कितनी सादगी से छलता है खरीदने वाले को सिर्फ बाजार मिलता है हर चीज़ को दाम है यानि सब ठीक चलता है ! 'आह' को हालात मिले हैं 'वाह' कि आग बढ़ती है दायरे में खड़े हों तो सच्चाइयाँ सर चढती है कड़वाहट! क्यों चारों तरफ है? क्या इसका मुझ पर असर है? नज़रपरस्त है, नज़रंदाज़ हो उमीदों पर यकीं का ये लंबा सफर है  खूबसूरत दुनिया है तो नज़र नहीं आती क्यों!  असर इबादत है तो आह बन जाती क्यों!  मक़ाम जज़्ब है तो फिर सफर ही क्यों ?  सवाल ही मेरा सकूं हैं क्यों?

नासमझी!

ये कैसी मोहब्बत है  अदावत है, बगावत है मुश्किल कोई कम नहीं है! फिर भी मोहब्बत है! ये कैसी जरुरत है खलती है, खूबसूरत है हैं कहीं मौजूद मुझमे है! फिर भी जरूरत है? ये कैसी नजाकत है ख़ामोशी चुप नहीं होती बगावत सर झुकाए है! इरादे  नेक हों तो फिर शरारत कैसे कि जाये मोहब्बत है तो फिर मोहब्बत क्यों न कि जाये? ये कैसी पहचान है जान कर अनजान है नज़र आते हैं, पर नज़र नहीं मिलाते! ये कैसी  शरारत है  लम्हों को  छुपाये  हैं  पास फिर भी आये हैं

अज्ञातमित्र

मैं अज्ञात हूँ थोडा बहुत विख्यात हूँ  किसी दिन अपनी जीत हूँ किसी दिन अपनी मात हूँ अपने ही मुहं से निकली हुई बात हूँ  चाँद का इंतज़ार करती रात हूँ शतरंज पर बिछी हुई बिसात हूँ अपनी ही शह को दी हुई मात हूँ मर्द जात हूँ जात निकला जमात हूँ न बोला जो कभी वो ज़ज़्बात हूँ कहने को ये सब तो फिर क्यों अज्ञात हूँ बची हुई स्याही, अनकही लिखाई दवात हूँ मित्र हूँ अधूरा है जो अभी वो चित्र हूँ लकीरें है आकार नहीं रंग है पर रंगत नहीं पंक्तियाँ है पर पंगत नहीं साथी है पर संगत नहीं मैं अधुरा हूँ इस विचार में पूरा हूँ थोडा गोरा, थोडा भूरा हूँ बचे हुए लड्डू का चुरा हूँ अपने ही हाथ में दिया कटोरा हूँ जो सामने आया वही बटोरा हूँ सारी परम्पराओं का ठिठोरा हूँ! नयी बातों को नौजवान छोरा हूँ जहन में समंदर हैं फिर भी कागज कोरा हूँ !