नज़रपरस्त है फिर भी यकीं नहीं जाता
तारीख रह रह सर उठाती है
ख्यालों में सेंध लगाती है
वक़्त साथ साथ चलता है
कितनी सादगी से छलता है
खरीदने वाले को सिर्फ बाजार मिलता है
हर चीज़ को दाम है
यानि सब ठीक चलता है !
'आह' को हालात मिले हैं
'वाह' कि आग बढ़ती है
दायरे में खड़े हों तो
सच्चाइयाँ सर चढती है
कड़वाहट!
क्यों चारों तरफ है?
क्या इसका मुझ पर असर है?
नज़रपरस्त है, नज़रंदाज़ हो
उमीदों पर यकीं का ये लंबा सफर है
खूबसूरत दुनिया है तो नज़र नहीं आती क्यों!
असर इबादत है तो आह बन जाती क्यों!
मक़ाम जज़्ब है तो फिर सफर ही क्यों ?
सवाल ही मेरा सकूं हैं क्यों?
अपनी पोस्ट के प्रति मेरे भावों का समन्वय
जवाब देंहटाएंकल (9/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
वाह।
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