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अपने अधूरे कि दूसरे के पूरे?

तमाम शादियाँ है इस ज़हान में, हर रंग की,
क्यों जरूरी कि हम इस खेल के जमूरे हों?

ठीक करना है मेरे मुस्तकबिल को
या मुझे तक़दीर के ठिकाने लगाना है?

अपने अधूरे अच्छे, क्यों दुसरे के पूरे हों,
बेढब रस्मो-रिवाज़ों के हम क्यों जरूरे हों?



मेरे रास्ते हैं, मेरे सफ़र हैं,
कभी अकेले कभी हमसफ़र हैं,
कदम मिलेंगे तो साथ भी चलेंगे!
यूँ नहीं हम किसी साँचे ढलेंगे
अपने तजुर्बों के मुकम्मल हैं,
क्यों कोई मेहरबानी पेलेंगे
ये क्या मज़बूरी है कि किसी के हाथ आयें
अच्छे खासे हैं,
लाज़िमी है कि हम खुद को मिलेंगे!



रब की मर्ज़ी या खुदगर्ज़ी,
फ़िक्र की बातें, झूठी अर्ज़ी

डर के फैसलें सब सब फ़र्जी
अपनी राय के सब बाबर्ची

फटे नहीं मेरे पैराहन
मेरे चादर मेरी मनमर्ज़ी,
नाप मेरे ही रहेंगे,
आप क्यों बने हैं दर्ज़ी!


चलने से इनकार नहीं
रास्तों को नकार नहीं




सामान किसी का बन
चलने को तैयार नहीं


सफार के लिए हमसफ़र
जरुरत है, और
खुदमख्तारी गुनाह नहीं
इंसानी फ़ितरत है

(क्यों हम हर लड़की को शादी के तराजू में तोलते हैं, सब करते हैं कोई वजह है या दायरे में बंधी सोच। आज एक पाकिस्तानी दोस्त साहिबा से गुफ़्तगू हो रही थी और वो अपनी अम्मी की तकलीफ़, जिस का ढीकरा उनके सर फ़ूटता है, बता रहीं थी। आतिका जी एक इंटरनेशनल ड़ेवलपमेंट एजेंसी के लिये नेशनल प्रोग्राम मैनेज़र हैं और एड़ल्ट एड़ूकेशन के काम से जुड़ी हुई हैं, पुरा पाकिस्तान अकेले घुमती हैं अपने काम के सिलसिले में पर घर आती हैं तो माँ के लिये बस एक बेटी बन जाती हैं। गलत न समझें, माँ माशरे / समुदाय के दायरों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकतीं, दवो दुश्मन नहीं है। हमारी दुनिया है जो एक तरफ़ झुकी हुई है और संतुलन न हो तो इंसाफ़ नहीं हो सकता )

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हाथ पर हाथ!!

मर्द बने बैठे हैं हमदर्द बने बैठे हैं, सब्र बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अल्फाज़ बने बैठे हैं आवाज बने बैठे हैं, अंदाज बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! शिकन बने बैठे हैं, सुखन बने बैठे हैं, बेचैन बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अंगार बने बैठे हैं तूफान बने बैठे हैं, जिंदा हैं शमशान बने बैठे हैं! शोर बिना बैठे हैं, चीख बचा बैठे हैं, सोच बना बैठे हैं बस बैठे हैं! कल दफना बैठे हैं, आज गंवा बैठे हैं, कल मालूम है हमें, फिर भी बस बैठे हैं! मस्जिद ढहा बैठे हैं, मंदिर चढ़ा बैठे हैं, इंसानियत को अहंकार का कफ़न उड़ा बैठे हैं! तोड़ कानून बैठे हैं, जनमत के नाम बैठे हैं, मेरा मुल्क है ये गर, गद्दी पर मेरे शैतान बैठे हैं! चहचहाए बैठे हैं,  लहलहाए बैठे हैं, मूंह में खून लग गया जिसके, बड़े मुस्कराए बैठे हैं! कल गुनाह था उनका आज इनाम बन गया है, हत्या श्री, बलात्कार श्री, तमगा लगाए बैठे हैं!!

पूजा अर्चना प्रार्थना!

अपने से लड़ाई में हारना नामुमकिन है, बस एक शर्त की साथ अपना देना होगा! और ये आसान काम नहीं है,  जो हिसाब दिख रहा है  वो दुनिया की वही(खाता) है! ऐसा नहीं करते  वैसा नहीं करते लड़की हो, अकेली हो, पर होना नहीं चाहिए, बेटी बनो, बहन, बीबी और मां, इसके अलावा और कुछ कहां? रिश्ते बनाने, मनाने, संभालने और झेलने,  यही तो आदर्श है, मर्दानगी का यही फलसफा,  यही विमर्श है! अपनी सोचना खुदगर्जी है, सावधान! पूछो सवाल इस सोच का कौन दर्जी है? आज़ाद वो  जिसकी सोच मर्ज़ी है!. और कोई लड़की  अपनी मर्जी हो  ये तो खतरा है, ऐसी आजादी पर पहरा चौतरफा है, बिच, चुड़ैल, डायन, त्रिया,  कलंकिनी, कुलक्षिणी,  और अगर शरीफ़ है तो "सिर्फ अपना सोचती है" ये दुनिया है! जिसमें लड़की अपनी जगह खोजती है! होशियार! अपने से जो लड़ाई है, वो इस दुनिया की बनाई है, वो सोच, वो आदत,  एहसास–ए–कमतरी, शक सारे,  गलत–सही में क्यों सारी नपाई है? सारी गुनाहगिरी, इस दुनिया की बनाई, बताई है! मत लड़िए, बस हर दिन, हर लम्हा अपना साथ दीजिए. (पितृसता, ग्लोबलाइजेशन और तंग सोच की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए हर दिन के महिला संघर्ष को समर्पि

हमदिली की कश्मकश!

नफ़रत के साथ प्यार भी कर लेते हैं, यूं हर किसी को इंसान कर लेते हैं! गुस्सा सर चढ़ जाए तो कत्ल हैं आपका, पर दिल से गुजरे तो सबर कर लेते हैं! बारीकियों से ताल्लुक कुछ ऐसा है, न दिखती बात को नजर कर लेते हैं! हद से बढ़कर रम जाते हैं कुछ ऐसे, आपकी कोशिशों को असर कर लेते हैं! मानते हैं उस्तादी आपकी, हमारी, पर फिर क्यों खुद को कम कर लेते हैं? मायूसी बहुत है, दुनिया से, हालात से, चलिए फिर कोशिश बदल कर लेते हैं! एक हम है जो कोशिशों के काफ़िर हैं, एक वो जो इरादों में कसर कर लेते हैं! मुश्किल बड़ी हो तो सर कर लेते हैं, छोटी छोटी बातें कहर कर लेते हैं! थक गए हैं हम(सफर) से, मजबूरी में साथ खुद का दे, सबर कर लेते हैं!