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जुलाई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्या देखा!

सपनों के हक़ीकत बनने कि बात करते हो, हमने अकीदत को यहां खुदा बनते देखा है! खुद में मसरूफ़ होकर महफ़ूज़ नहीं होते, हमने खुदा को भी तो यहां लुटते देखा है! कल जमाना खुशियों पर मगरूर था, आज उसको लकीर पीटते देखा है! वक्त का घोड़ा हम सब पर सवार है, हमने कब वक्त के उस ओर देखा है? देखी तो हमने भी बहुत सारी दुनिया खुली  आंख  सुबह तो कुछ और देखा है! वही मातम अपनों को, परायों की नुमाईश है, अपनों से आगे हमने, कहां कुछ और देखा है? माना ये दुनिया हर तरफ़ लक्ष्मण रेखा है, हमने भी पलट कर कहां‌ खुद को देखा है! नफ़रत की क़ैद में अब सारी आशनाई है, पहले कहाँ इतना कुछ नागवार देखा है? डर ने घर बना लिए हैं कितने ज़हन में, बड़े फ़ायदे का किसीने कारोबार देखा है! शक ही काफ़ी है गुनहगार बनाने को, जहां देखा भीड़ का इंसाफ़ देखा है! इंसाफ़ की कब्र पर मंदिर बनते हैं, इस सदी भी ऐसा रामराज देखा है!

#SunwayiChahiye

अररिया में कुछ साथी हैं, काम की उनकी बातें हैं, ज़मीन से जुड़े नाते हैं, एक हैं उसमें जो तन्मय कहलाते हैं, आवाज़ उठाते हैं, सामने आते हैं, सामना करने, अन्याय का, अनुचित का, जिसको मुश्किल में पाते हैं जा, अपना कंधा मिलाते हैं, साथ संग पाँव उठाते हैं! और एक कल्याणी हैं, दिल की उनकी वाणी है, दिल से सारे नाते हैं उनकी भी यही बातें हैं, दोनों बड़ें विश्वासी हैं, संविधान के वासी हैं, न्याय के पिपासी हैं उनका क्या दोष हुआ, गलत को गलत कहना ये गुनाही उदघोष हुआ? और इंसाफ़ छुट्टी पर है, कुछ की मुट्ठी में है? इसलिए आपका साथ चाहिए, एक साथ आवाज़ चाहिए, दूर दूर तक बात चाहिए, जोड़िए अपना नाम, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम चार से छह बजे आज शाम  आ सकते हैं आप बड़े काम धन्यवाद शुक्रिया प्रणाम!

किसके आसमाँ?

एक एक कदम!

हर कदम  पूरा सफर है, उसके बिना  अधूरा सफर है, पहला कदम  शरुवात है, पूरी, दू सरा,  इरादों की मंजूरी, तीसरा, नीयत जरूरी, और एक कदम, काबिलियत और एक कदम तैयारी, जज़्बा, हिम्मत, कुव्वत, शौक, पूरा होश, और जोश, एक और, और एक, साबित कदमी कुछ और यकीन, और, कुछ मोड़ आख़िरकार  सामने नज़र, चंद और कदम और चार कदम जरूरी, तीन कोस दूरी, दो बातें अधूरी, एक होती जिस्म और रूह , अंत है या शुरुवात, फिर किसने रोक रखा है? बस एक कदम  पूरा करिए, सामने है, दूरी पूरी करिए, बस एक कदम, वो ही सफर है, वो ही दूरी, वो ही जरूरी, बात उसी से पूरी, बाकी सब बातें हैं अधूरी!

पहचान - एक गुलामी

बचपन से सिखाते हैं, मुझे "मैं" बनाते हैं, अलग करके सब से रिश्ते दिखाते हैं, जज़्बात जगाते हैं, प्यार, देखभाल, मदद हरहाल, इज़्ज़त, और फिर इन सब को सही-गलत, अपने-पराये छोटे-बड़े के दायरे में बंद कर नैतिकता बनाते हैं, चेतना बना कर सरहदों के कैदी बनाते हैं, इस तरह आज़ाद हो हम दुनिया में आते हैं!

पहचान - एक ज़ुबान

ज़िंदगी नाम है, या काम? संज्ञा, सर्वनाम? क्रिया, विशेषण? या ये सब तमाम? क्रिया बिन क्या नाम? नाम बिन कोई काम? काम कोई विशेष हो जो बन जाए सर्वनाम? या सर्वनाम काम है? जैसे उपनाम है, जन्म दर जन्म, आपको जकड़े हुए, जात, धर्म विशेषण, क्रिया एक शोषण? कुरीति, कुपोषण? और उन सबका क्या, जो बेनाम हैं, उनके लाखों काम हैं, न उनकी कोई संज्ञा, न कोई सर्वनाम है! भाषा से ही, भाषा में भी उनका काम तमाम है!

पहचान से - अधूरे

कोई भी एक पहचान, हमें अधूरा करती है, हवा, पानी, राख, मिट्टी, लाखों ख़्वाब, रंग जाने पहचाने, रिश्ते, माने न माने वो सब जो कभी हाथ थामे, कभी एहसास बन, कभी प्यास बन, हमारे रास्तों के हमसफ़र हैं, बिन उनके, हम कम हैं, हम एक हैं नहीं, पूरे अधूरे हैं, अधूरे पूरे हैं!

पहचान एक - मुसीबत

हर मुसीबत आईना है, खुद को नज़र आने को, अपने अंधेरों से रूबरू होने को अपनी रोशनी के परे जाने को, अपने सच के नकाबों के परे, दुनिया के रिवाजों से घिरे पर्दे हटाने का, काम, आसान नहीं है, अपने से पहचान, करना है, आइनों से मुलाकात, दुनिया के तमाम, 'चाहिए'; 'ऐसा ही', 'लेकिन'; 'पर-मगर' शक के परे जाकर, अपने सामने आकर!

निल बटे सन्नाटा!

ज़िंद गी क्या है,  आख़िरकार? कोई वज़ह है? या बस साँसों के चलने की एक जगह है? भय की वजह है? लॉक डाउन, सोशल डिस्टेंसिंग कल के लिए बचने को? हक़ीकत सपने में बदल रहे हैं! क्यों उलटी चाल चल रहे हैं? बच्चे खेलें नहीं? भूखे काम न करें? घर अंदर हिंसा नाकाम न करें? फसल के दाम न करें? मरना कोई नयी बात है? या बस मर्द ज़ज्बात हैं? बीमारी को हराना है? किसी कीमत? तरक्क़ी सदियों की, सभ्यता विकास की, विवेक की, एहसास की, आभास की? निल बट्टे सन्नाटा? घर बैठ जाओ, किसी से मिलो नहीं, सुबह चलो नहीं? अरबों किताबें, लाखों गुणीं बातें, सौ -हज़ार भगवान, फिर भी बात मौत की सब काम तमाम?

अपनी ही राख़!

ये कैसा वनवास है, क्यों थक गई मेरी प्यास है? क्यों मुस्कराहट उदास है? अब भी जल रही हूँ, देख, सुन, वो आह जो बदहवास है, छू रहे हैं दर्द अब भी, नहीं जो मेरे खास हैं, महकी हुई है दुनिया जो मेरे आसपास है, चुस्त सारे हवास (senses) हैं, ये कैसी बेदारी (awakening) है, एहसासों की बेगारी है, "मैं" फिर भी मैं हूँ, अपने महलों से सुसज्जित, लज्जित,  अपनी रोशनी से झुंझलाई, जो उन अंधेरों तक  पहुंचते नहीं, जहाँ मेरी नज़र जाती है, किस से मुँह फेरूं, ख़ुद से, या अपने एहसासिया निकम्मेपन से आख़िरकार मैं ही कम हो रही हूं, अपनी ही संवेदना से, जल रही हूँ, जल चुकी हूं? क्या मैं अपनी राख हूँ? अपनी ही रोशनी में जल रहे हैं! राख बन कर अपनी चल रहे हैं!

इंसानी प्रकृति!

आपसी रिश्ते सिर्फ़ इंसान से रिश्तों से खून के जातीय मकान से खरीदे सामान से पसंदीदा पकवान से पालतू जानवर , या धर्म की मानकर और धरती से ? जिसके उपर सब खडे हैं ! क्या हम सब चिकने घडे हैं ? कहां वो शुरुवात हुई , जो आखिर हमारी मात हुई ? एक अलग ईंसानी जात हुई बुद्धि , विवेक , संवेदना की बात हुई ? और फ़िर लगे जंगल कटने , जानवर जंगली बन गए , संरक्षित , जो बचे हैं , हमारी दयामाया से , क्या है हमारी प्रकृति ? हरियाली से हमारा क्या रिश्ता है ? या वो सिर्फ़ एक चीज़ है , बाज़ार की दुनिया वाली , इस्केवर फ़ीट के दाम वाली , या छुट्टिंओं वाली , हमारे ज़िंदगी के हसीन पलों की , याद दिलाने वाली , तस्वीरों की पॄष्ठभूमि ? धरती को माता कहते हैं , इसे तो नाता कहते हैं ! इंसानी दुनिया को पालने - पोसने वाली , फ़िर क्यों ये हाल है ? क्यों प्रकृति बेहाल है ? भूकंप , सुनामी , सायक्लोन , ज्वालामुखी , जंगल जंगल आग कहीं ये जज़्बात तो नहीं ?

इंसानी विधाएं!

दुनिया बहुत भरमाए है,  तस्वीर मन लुभाए है,  मन बहुत बहकाए है,  जिम्मेदार कौन हो? इंसान अब भी मूरख है,  नीयत से धूरत है,  काट, छाँट, बाँट,  ये तरक्की की सूरत है! मौत के डर से ज़िंदगी निचोड़ते हैं,  सारा रस निकालने को,  लाश बनने को,  कहां कोइ कसर छोड़ते हैं! काबिल हैं तमाम बातों के,  लिख्खा है सौ किताबों में,  समझ को बदल ताकत में,  बने लातों के भूत बातों से!  दूर दूर तक के सफ़र हैं,  मुमकिन सोच के असर हैं,  फ़िर क्यों 'मैं मानव' में सिमटे हैं?  किस सवाल के कम हैं? हर शुरुवात मोहब्बत है,  फ़िर रिश्ता बनती है,  फ़िर सौदे की बातें सब,  ये रास्ते दुनिया चुनती है! दर्द जो हमारे हैं,  बडे ही हमको प्यारे हैं,  लाखों कत्ल कर कुदरत के,  कहते, 'वाह!क्या नज़ारे हैं'! फ़िर भी ये नहीं के हम इंसान कम हैं,  या नेक होने को अरमान कम हैं,  पर अपनों से ही सारी लडाई है,  उधडें वही जो बुनाई है, बनाई है!

पेड़-पौधे अदने-बौने!

वो एक खूबसूरत सुबह,  सूरज की रोशनी से चमकती  और उसी की प्रछाई से पुरस्कृत  पास ही में वो बगीचा,  रंगों से सराबोर सारे रंग ज़िंदगी के और सब उतने ही उद्धंड और  घांस इतनी घनघोर हरित  कि आँख और दिल  दोनों भर आयें,  और उनके पार पहाड  आशा की ओस में नहाए, एकदम तैयार ताजगी से चमकते हुए चलने को तैयार कितनी मनमोहक सुबह हर चीज़ सुंदरता से सृजित संकरे पुल के उपर बहती धारा के बीच जंगल के गलियारे में पत्ते किरणों से  चंचलित! चंचलता जो उनकी परछाई को रोशनी दे रही थी वो सब साधारण पेड़-पौधे थे, पर अपनी हरियाली और ताज़गी से उन्होंने  उन सब पेड़ों को  पीछे छोड़ दिया था, जो नीले आकाश को  चुनौती देने में व्यस्त थे! (जिद्दू कृष्णमूर्ति की सुबह की चहलकदमी की अभिव्यक्तियों में से एक का काव्यानुवाद)