ज़िंदगी नाम है,
या काम?
संज्ञा, सर्वनाम?
क्रिया, विशेषण?
या ये सब तमाम?
क्रिया बिन क्या नाम?
नाम बिन कोई काम?
काम कोई विशेष हो
जो बन जाए सर्वनाम?
या सर्वनाम काम है?
जैसे उपनाम है,
जन्म दर जन्म,
आपको जकड़े हुए,
जात, धर्म विशेषण,
क्रिया एक शोषण?
कुरीति, कुपोषण?
और उन सबका क्या,
जो बेनाम हैं,
उनके लाखों काम हैं,
न उनकी कोई संज्ञा,
न कोई सर्वनाम है!
भाषा से ही,
भाषा में भी
उनका काम तमाम है!
मर्द बने बैठे हैं हमदर्द बने बैठे हैं, सब्र बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अल्फाज़ बने बैठे हैं आवाज बने बैठे हैं, अंदाज बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! शिकन बने बैठे हैं, सुखन बने बैठे हैं, बेचैन बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अंगार बने बैठे हैं तूफान बने बैठे हैं, जिंदा हैं शमशान बने बैठे हैं! शोर बिना बैठे हैं, चीख बचा बैठे हैं, सोच बना बैठे हैं बस बैठे हैं! कल दफना बैठे हैं, आज गंवा बैठे हैं, कल मालूम है हमें, फिर भी बस बैठे हैं! मस्जिद ढहा बैठे हैं, मंदिर चढ़ा बैठे हैं, इंसानियत को अहंकार का कफ़न उड़ा बैठे हैं! तोड़ कानून बैठे हैं, जनमत के नाम बैठे हैं, मेरा मुल्क है ये गर, गद्दी पर मेरे शैतान बैठे हैं! चहचहाए बैठे हैं, लहलहाए बैठे हैं, मूंह में खून लग गया जिसके, बड़े मुस्कराए बैठे हैं! कल गुनाह था उनका आज इनाम बन गया है, हत्या श्री, बलात्कार श्री, तमगा लगाए बैठे हैं!!
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