ज़िंदगी क्या है,
आख़िरकार?
कोई वज़ह है?
या बस साँसों के
चलने की एक जगह है?
भय की वजह है?
लॉक डाउन,
सोशल डिस्टेंसिंग
कल के लिए बचने को?
हक़ीकत
सपने में बदल रहे हैं!
क्यों उलटी चाल चल रहे हैं?
बच्चे खेलें नहीं?
भूखे काम न करें?
घर अंदर हिंसा
नाकाम न करें?
फसल के दाम न करें?
मरना कोई नयी बात है?
या बस मर्द ज़ज्बात हैं?
बीमारी को हराना है?
किसी कीमत?
तरक्क़ी सदियों की,
सभ्यता विकास की,
विवेक की, एहसास की,
आभास की?
निल बट्टे सन्नाटा?
घर बैठ जाओ,
किसी से मिलो नहीं,
सुबह चलो नहीं?
अरबों किताबें,
लाखों गुणीं बातें,
सौ -हज़ार भगवान,
फिर भी बात मौत की
सब काम तमाम?
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें