छोर
से छोर,
काली
स्याह,
शुक्रगुजार,
मैं
कुदरती
ताकत का,
अपनी
अपराजित रुह के लिये
बिगड़े
हालात के चंगुल में,
मेरेमाथे पे शिकन न गले में रुदन
मौकों
की मार,
मेरे
सर को
लाल
कर दी,
झुका
न सकी,
हावी
होते हैं पर परछाई के डर,
फ़िर
भी,
इकट्ठे
सालों की धमकी,
के
सामने
मैं
हूँ और रहूँगा निड़र,
मैं ही अपनी रुह का (कार्य) करता हूँ!
(ये उस कविता को भाषांतरित करने की कोशिश है, जिसकी पंक्तियों ने नेल्सन मंड़ेला को २५ साल जेल में अपने सच के साथ रहने की ताकत दी, अपनी रोज़मर्रा की मुश्किलों या यूँ कहिये अपनी असंभावनाओं को अपने पर हावी न होने देने की कल्पना!)
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