साहिल डूब रहे हैं अपने ही समंदर से,
और सर चढ़े समंदर को शऊर कहां?
बिखर कर खो जाओगे समंदर, इल्म है?
बूंद से सीखो ऐसी तुमको नज़र कहां?
भूल कर शुरुवात, अंत को इतराते हैं?
मील के पत्थर हो तुम, मुसाफिर कहां?
पहाड़ों को जज़्ब करके अट्टहास क्यों?
वही बन गए जिसको तुम गिराते हो?
एक ही रंग में भिगो दिया सबको?
मुरख! अपनी ही पहचान गंवाते हो?
वो बाबरी थी ओ तुम भी बावरे निकले?
कट्टरता कहते थे (जिसको) वही दिखाते हो
और सर चढ़े समंदर को शऊर कहां?
बिखर कर खो जाओगे समंदर, इल्म है?
बूंद से सीखो ऐसी तुमको नज़र कहां?
भूल कर शुरुवात, अंत को इतराते हैं?
मील के पत्थर हो तुम, मुसाफिर कहां?
पहाड़ों को जज़्ब करके अट्टहास क्यों?
वही बन गए जिसको तुम गिराते हो?
एक ही रंग में भिगो दिया सबको?
मुरख! अपनी ही पहचान गंवाते हो?
वो बाबरी थी ओ तुम भी बावरे निकले?
कट्टरता कहते थे (जिसको) वही दिखाते हो
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