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शीला की कहानी!

मर्दों की दुनिया सारी, घूरने की है बीमारी, शरम कभी न आनी
माने न माने कोई ,भाई – भतिज़ों की दुनिया बड़ी सुहानी
माँ- बहनें घर में बैठें, बाहर कुछ और कहानी
अब दिल करता है हौले हौले से किसी कि भी गले पड़ जायें,
रिश्तों का मर्दों को बंधन क्या, बस अपना प्यार जतायें
माँ कसम, माँ कसम, माँ कसम
my name is शीला,
शीला की बदनामी,
रज़िया गुंड़ो में फ़ंस गयी और
मुन्नी की नादानी

गली गली गली के लड़के
मुझे फ़ोलो फ़ोलो करते हें
और जब में नज़र फ़ेरुं, बस ताने कसते हें,
बेशरम, बदतमीज़ मरदुए

हाय रे ऐसे चेपू हम,
फ़ेविकोल बन चिपकें रे
कितने तुम कपड़े पहनो, अपनी नज़रिया बरसे रे
प्यास हमारी ऐसी, भूख हमारी ऐसी, शराफ़त है बेमानी

दे दो रे! दे दो रे! दे दो रे!
शालू, शालू की नादानी,
टेस्ट जलेबी बाई का और अनारकली की जवानी

शर्म तुम्हारा गहना है, इसलिये कम पहना है,
फ़िलिम ड़िरेक्टर कहते हें, एक बटन कम रहना है,
और अगर मुँह खोलें तो कहें करेक्टर ढीला है,

कौन है ये, कौन है ये, क्या है ये
लीला, मर्दों की सब लीला,
शीला,
मुन्नी,
शालू,
रज़िया
सब पर है निशाना. 
भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना,
वो भी किसी की बहन होगी, घर बाहर भुल न जाना!

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हाथ पर हाथ!!

मर्द बने बैठे हैं हमदर्द बने बैठे हैं, सब्र बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अल्फाज़ बने बैठे हैं आवाज बने बैठे हैं, अंदाज बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! शिकन बने बैठे हैं, सुखन बने बैठे हैं, बेचैन बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अंगार बने बैठे हैं तूफान बने बैठे हैं, जिंदा हैं शमशान बने बैठे हैं! शोर बिना बैठे हैं, चीख बचा बैठे हैं, सोच बना बैठे हैं बस बैठे हैं! कल दफना बैठे हैं, आज गंवा बैठे हैं, कल मालूम है हमें, फिर भी बस बैठे हैं! मस्जिद ढहा बैठे हैं, मंदिर चढ़ा बैठे हैं, इंसानियत को अहंकार का कफ़न उड़ा बैठे हैं! तोड़ कानून बैठे हैं, जनमत के नाम बैठे हैं, मेरा मुल्क है ये गर, गद्दी पर मेरे शैतान बैठे हैं! चहचहाए बैठे हैं,  लहलहाए बैठे हैं, मूंह में खून लग गया जिसके, बड़े मुस्कराए बैठे हैं! कल गुनाह था उनका आज इनाम बन गया है, हत्या श्री, बलात्कार श्री, तमगा लगाए बैठे हैं!!

पूजा अर्चना प्रार्थना!

अपने से लड़ाई में हारना नामुमकिन है, बस एक शर्त की साथ अपना देना होगा! और ये आसान काम नहीं है,  जो हिसाब दिख रहा है  वो दुनिया की वही(खाता) है! ऐसा नहीं करते  वैसा नहीं करते लड़की हो, अकेली हो, पर होना नहीं चाहिए, बेटी बनो, बहन, बीबी और मां, इसके अलावा और कुछ कहां? रिश्ते बनाने, मनाने, संभालने और झेलने,  यही तो आदर्श है, मर्दानगी का यही फलसफा,  यही विमर्श है! अपनी सोचना खुदगर्जी है, सावधान! पूछो सवाल इस सोच का कौन दर्जी है? आज़ाद वो  जिसकी सोच मर्ज़ी है!. और कोई लड़की  अपनी मर्जी हो  ये तो खतरा है, ऐसी आजादी पर पहरा चौतरफा है, बिच, चुड़ैल, डायन, त्रिया,  कलंकिनी, कुलक्षिणी,  और अगर शरीफ़ है तो "सिर्फ अपना सोचती है" ये दुनिया है! जिसमें लड़की अपनी जगह खोजती है! होशियार! अपने से जो लड़ाई है, वो इस दुनिया की बनाई है, वो सोच, वो आदत,  एहसास–ए–कमतरी, शक सारे,  गलत–सही में क्यों सारी नपाई है? सारी गुनाहगिरी, इस दुनिया की बनाई, बताई है! मत लड़िए, बस हर दिन, हर लम्हा अपना साथ दीजिए. (पितृसता, ग्लोबलाइजेशन और तंग सोच की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए हर दिन के महिला संघर्ष को समर्पि

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