सांप सुंघ लीजे. . .
सांप भी मर गया और लाठी भी टूट गयी,
आँखे खुली, खोलो!!
समझ आये तो समझिये,
न सांप, सांप था न लाठी मारने वालों की थी,
इसे कहते है शातिर,
पेश-ए-ख़िदमत है,
हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था
आपके ख़ातिर,
आप जात बताइये,
ये आपकी औकात,
एक तरह का पौराणिक एप है,
काम आसान करने वाला,
किसका?
मूरख सवाल पूछते हो,
तभी तुम अछूत हो!
अछूते....
तमाम मिडियोकर,
गली के आवारा कुत्तों की तरह
सर पर 24*7 लटकते,
जातीय सचों को
खिलौना बनाकर,
एक बच्चा, खुद
कठपुतली बनने से इंकार करता है,
तो रोहित (वेमुला) उदित होता है,
रोशनी बनता है,
अगर आप को नहीं दिखती तो आप अंधे है,
या जात या मानसिकता के पंडे,
अवस्थी, तिवारी, श्रीवास्तव, गुप्ता, रेड्डी, नैयर, मेनन....
पंडे,
जो हमेशा अपने झंडों पर खड़े होते है,
किसने देखा है कि वो किनकी कब्रों पर गड़े होते हैं,
इनकी काबिलियत पर प्रश्न नहीं उठा सकते,
बड़े बड़े काम ये करते हैं,
इतने बड़े घड़े बनाये हैं, पापों के,
के सदियों से नहीं भरते,
और जस्ट इन केस कभी कोई
भारी भूल हो जाए,
तो गंगा है न,
अपना नंगापन दिखने में
इनको वैसे भी कोई शर्म नहीं,
शर्म नहीं?
हमको आपको,
हम अपने आप को
अपनी मेहनत का फल मानते है,
आसान है, इसलिए मानते है,
वो याद नहीं राकेश जो
आपकी क्लास में पड़ता था
पांचवी में
और जिस दिन स्कुल में नहीं,
उस दिन आपके घर पर,
आपका लेट्रीन साफ़ करता था,
या बाबूलाल चपरासी जो,
स्कुल छोड़ने आपको साइकिल लेजाता था
उसे ये हक कहाँ था की वो गुस्सा कर पाये,
या शर्मा मैडम जो आपकी शिकायत सुनती ही नहीं थी,
क्योंकि उन्हें मालुम था,
उच्च कुलीन कुछ गलत नहीं करते!
इतने लोगों ने सहारा दिया,
ज़ाहिर है हम अपने पैरों पर खड़े हैं,
सिर्फ इसलिए की हम जात के बड़े हैं,
या इंसानियत की नज़रों से देखें,
तो जात के सड़े हैं,
सड़े? इतने सड़े कि अपनी बदबू की
हमें आदत पड़ी है,
गद्दी पर पैठे हैं, और कहते हैं ये दुनिया सड़ी है,
और क्योंकि पुरानी आदत है,
इसकी तोहमत भी रोहित के मत्थे जड़ी है,
रोहित
रोहित का पैगाम पढ़िए,
अगर आप एक पल के लिए
अपनी जात बाजु रखेंगे तो,
उसकी परिपक्वता का लोहा मानेंगे,
ओ! हाँ! हम तो पहले ही जानते है,
जानते हैं क़ि कोई भी अकल वाला,
ये समझ जायेगा,
उसको अम्बेडकर याद आएगा,
"हिंदू धर्म के अंदर आपको न्याय नहीं मिल सकता",
और ऊपर से उसके सर मंडराते सच,
सरकारी और प्रशासनिक 24*7
हथकंडे, और फिर वही पंडे,
और एक सच,
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं,
रोहित कमज़ोर नहीं था,
उसे वो रास्ता दिखा,
संभावना दिखी,
और वो चला गया!
और आप हम लकीरें पीटते बैठे हैं,
सांप अंदर है और हम बाहर ढूंढते हैं,
हाथ उठा कर कहिये,
मैंने क्या किया??!!
लाठी मेरे हाथ में नहीं है,
लाठी लाठी आपकी जात है,
सदियों लंबी है, और दिखती नहीं,
आप सुरक्षित हैं,
क्योंकि आप सदियों से आरक्षित हैं,
कब तक रोहित की लाठी को दोष देंगे,
वो उसने चलने के लिए ली थी,
पर सावधान,
वो लाठी छोड़ कर गया है,
तोड़ कर गया है,
हज़ार लाख टुकड़ों में,
जो अब उन सब के हाथ पड़ी है,
जो अपने को इंसान मानते हैं,
किसी धर्म-समाज की जात नहीं,
आपके सामने सर झुकाती औकात नहीं
अगर आप समझदार इंसान हैं,
तो खा लीजिये,
लाठी,
बदलाव की,
वैसे भी ये हिंदू ही परम्परा है,
अपने पुरखों के कर्मों का
हिसाब हमें ही चुकाना है,
अगर इंसान नहीं हो सकते,
तो कम से कम हिंदू ही हो जाइये!
रोहित अब एक सोच है,
भारत, सपनों का,
अम्बेडकर का,
अब भी एक खोज है!
सांप भी मर गया और लाठी भी टूट गयी,
समझ आये तो समझिये,
न सांप, सांप था न लाठी मारने वालों की थी,
इसे कहते है शातिर,
पेश-ए-ख़िदमत है,
हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था
आपके ख़ातिर,
आप जात बताइये,
ये आपकी औकात,
एक तरह का पौराणिक एप है,
काम आसान करने वाला,
किसका?
मूरख सवाल पूछते हो,
तभी तुम अछूत हो!
अछूते....
तमाम मिडियोकर,
गली के आवारा कुत्तों की तरह
सर पर 24*7 लटकते,
जातीय सचों को
खिलौना बनाकर,
एक बच्चा, खुद
कठपुतली बनने से इंकार करता है,
तो रोहित (वेमुला) उदित होता है,
रोशनी बनता है,
अगर आप को नहीं दिखती तो आप अंधे है,
या जात या मानसिकता के पंडे,
अवस्थी, तिवारी, श्रीवास्तव, गुप्ता, रेड्डी, नैयर, मेनन....
पंडे,
जो हमेशा अपने झंडों पर खड़े होते है,
किसने देखा है कि वो किनकी कब्रों पर गड़े होते हैं,
इनकी काबिलियत पर प्रश्न नहीं उठा सकते,
बड़े बड़े काम ये करते हैं,
इतने बड़े घड़े बनाये हैं, पापों के,
के सदियों से नहीं भरते,
और जस्ट इन केस कभी कोई
भारी भूल हो जाए,
तो गंगा है न,
अपना नंगापन दिखने में
इनको वैसे भी कोई शर्म नहीं,
शर्म नहीं?
हमको आपको,
हम अपने आप को
अपनी मेहनत का फल मानते है,
आसान है, इसलिए मानते है,
वो याद नहीं राकेश जो
आपकी क्लास में पड़ता था
पांचवी में
और जिस दिन स्कुल में नहीं,
उस दिन आपके घर पर,
आपका लेट्रीन साफ़ करता था,
या बाबूलाल चपरासी जो,
स्कुल छोड़ने आपको साइकिल लेजाता था
उसे ये हक कहाँ था की वो गुस्सा कर पाये,
या शर्मा मैडम जो आपकी शिकायत सुनती ही नहीं थी,
क्योंकि उन्हें मालुम था,
उच्च कुलीन कुछ गलत नहीं करते!
इतने लोगों ने सहारा दिया,
ज़ाहिर है हम अपने पैरों पर खड़े हैं,
सिर्फ इसलिए की हम जात के बड़े हैं,
या इंसानियत की नज़रों से देखें,
तो जात के सड़े हैं,
सड़े? इतने सड़े कि अपनी बदबू की
हमें आदत पड़ी है,
गद्दी पर पैठे हैं, और कहते हैं ये दुनिया सड़ी है,
और क्योंकि पुरानी आदत है,
इसकी तोहमत भी रोहित के मत्थे जड़ी है,
रोहित
रोहित का पैगाम पढ़िए,
अगर आप एक पल के लिए
अपनी जात बाजु रखेंगे तो,
उसकी परिपक्वता का लोहा मानेंगे,
ओ! हाँ! हम तो पहले ही जानते है,
जानते हैं क़ि कोई भी अकल वाला,
ये समझ जायेगा,
उसको अम्बेडकर याद आएगा,
"हिंदू धर्म के अंदर आपको न्याय नहीं मिल सकता",
और ऊपर से उसके सर मंडराते सच,
सरकारी और प्रशासनिक 24*7
हथकंडे, और फिर वही पंडे,
और एक सच,
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं,
रोहित कमज़ोर नहीं था,
उसे वो रास्ता दिखा,
संभावना दिखी,
और वो चला गया!
और आप हम लकीरें पीटते बैठे हैं,
सांप अंदर है और हम बाहर ढूंढते हैं,
हाथ उठा कर कहिये,
मैंने क्या किया??!!
लाठी मेरे हाथ में नहीं है,
लाठी लाठी आपकी जात है,
सदियों लंबी है, और दिखती नहीं,
आप सुरक्षित हैं,
क्योंकि आप सदियों से आरक्षित हैं,
कब तक रोहित की लाठी को दोष देंगे,
वो उसने चलने के लिए ली थी,
पर सावधान,
वो लाठी छोड़ कर गया है,
तोड़ कर गया है,
हज़ार लाख टुकड़ों में,
जो अब उन सब के हाथ पड़ी है,
जो अपने को इंसान मानते हैं,
किसी धर्म-समाज की जात नहीं,
आपके सामने सर झुकाती औकात नहीं
अगर आप समझदार इंसान हैं,
तो खा लीजिये,
लाठी,
बदलाव की,
वैसे भी ये हिंदू ही परम्परा है,
अपने पुरखों के कर्मों का
हिसाब हमें ही चुकाना है,
अगर इंसान नहीं हो सकते,
तो कम से कम हिंदू ही हो जाइये!
रोहित अब एक सोच है,
भारत, सपनों का,
अम्बेडकर का,
अब भी एक खोज है!
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