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रोहित वेमुला - एक सोच


 मैं भी पूरा इंसान हूँ, आप भी?
अगर होंगे तो समझ पाएंगे!

बस गिनीतियों में सीमित है पहचान,
ये क्या दौर है, ये क्या इंसान??

उम्मीदें खोयी है इरादे अब भी यहाँ हैं,
सितारों के आगे और भी कोई ज़हाँ हैं!
 

ये कैसी अवस्था है,
बड़ी बीमार व्यवस्था है!

चुपचाप सर झुका रहिये तो आप इंसान हैं,
सवाल उठाने वाले दो दिन के मेहमान हैं!

ये कैसी मोहब्बत कि पंख नहीं देती,
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं

 क्या आपकी कोई जाति है,
या आपको मानवता आती है!?

कितनी बीमार सोच है,
की कोई पैदाइशी कम है!
 
एक ख़त, और कड़वे सच,
बेबाक कितना, कितना बेबस!

कड़वी लगी है तो सच जरूर होगी,
उम्मीद है ज़हन में दर्ज़ ज़रूर होगी!


(रोहित का खत एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, ये पड़ कर महसूस किया था, पर अब ये सच बन कर दुनिया के अलग अलग कोनों से विरोध प्रदर्शन की तस्वीर बन कर आ रहा है। उस खत और उस में जिन सच्चाइयों कि तरफ़ इशारा किया है उन्हीं से निकल कर ये अभिव्यक्ति बाहर आइ है।)

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मर्द बने बैठे हैं हमदर्द बने बैठे हैं, सब्र बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अल्फाज़ बने बैठे हैं आवाज बने बैठे हैं, अंदाज बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! शिकन बने बैठे हैं, सुखन बने बैठे हैं, बेचैन बने बैठे हैं, बस बैठे हैं! अंगार बने बैठे हैं तूफान बने बैठे हैं, जिंदा हैं शमशान बने बैठे हैं! शोर बिना बैठे हैं, चीख बचा बैठे हैं, सोच बना बैठे हैं बस बैठे हैं! कल दफना बैठे हैं, आज गंवा बैठे हैं, कल मालूम है हमें, फिर भी बस बैठे हैं! मस्जिद ढहा बैठे हैं, मंदिर चढ़ा बैठे हैं, इंसानियत को अहंकार का कफ़न उड़ा बैठे हैं! तोड़ कानून बैठे हैं, जनमत के नाम बैठे हैं, मेरा मुल्क है ये गर, गद्दी पर मेरे शैतान बैठे हैं! चहचहाए बैठे हैं,  लहलहाए बैठे हैं, मूंह में खून लग गया जिसके, बड़े मुस्कराए बैठे हैं! कल गुनाह था उनका आज इनाम बन गया है, हत्या श्री, बलात्कार श्री, तमगा लगाए बैठे हैं!!

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