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छंद समंदर

साहिल किनारे, समंदर के धारे, सुबह के नज़ारे, रोशन ज़हाँ रे! उम्मीदों के इरादों को कैसे इशारे, यकीनों को सारे नज़ारे सहारे! लहरों के रेतों पर बहते विचारे, लकीरी फकीरों के छूटे सहारे! हर लहर को मिले अलग किनारे, दूजे को देख क्यों हम आप बेचारे ? दूर यूँ उफ़क से समन्दर मिलारे, सपनों को अपने कुछ ऐसे पुकारें! किनारों को समेटे समंदर ज़हाँ रे, किनारों को लगे वो उनके सहारे 

सफ़र के नुस्खे!

मुसाफ़िर रास्ते चुनते हैं मील के पत्थर नहीं गिनते, चलते रहिये युँ ही सफ़र अपने माफ़िक-ए-मन के! फ़िर पहलू से एक करवट उठी है, फ़िर कोई आहट एक लम्हा बनी है, फ़िर कोई नज़दीकी फ़ांसला बनी है  फ़िर एक आह सफ़र हो चली है!  कुछ नहीं बदला है तो क्या अलग है, देखें आज़ शफ़क को क्या फ़लक है? देखें आज़ उफ़क को क्या ललक है? नये लम्हों को ज़ज्ब करने मेरी पलक है! सफ़र लंबा है, दो साँसें आज ली तो लीं, पीछे क्या मुड़ना दो घड़ियां जरा जी तो लीं उठा लो अगला कदम दौर बदलने दो, फ़िर दास्तां बनेगी, आपको फ़ूर्सत मिली न मिली ! दिन के गुम दो-चार पहर, भटके हैं क्युँ शहर शहर डर, विपदा, अंजान कहर, ठोर कहां और कहां ठहर कुछ देर रुके हैं, तो हम मुसाफ़िर कम नहीं होते, ज़ारी सफ़र सदिओं से साहिल के किनारे, खड़े हैं (शफ़क - skyline during sunset; उफ़क़ - horizon; फ़लक - universe, sky)