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लाहौर-दस साल पहले

10 साल हुऐ पाकिस्तान गए थे, बनने (थोडा और) इंसान गए थे! बन कर मेहमान गए थे, एक मुश्किल (चार लोग जो बोलते हैं)  को आसान गए थे, जो मिले सब दोस्त हो गए, शक सारे खामोश हो गए! गले मिले आगोश हो गए, जज्बे सब के जोश हो गए! आज वो माहौल नहीं है, दिन, महीना और साल नहीं है, ज़हर का बाज़ार बना है, उसमें कोई इंकलाब नहीं है! हम वही, दोस्त वही हैं, दोस्ती ये खामोश नहीं है, अफ़सोस बहुत है, मिल नहीं पाते, उम्मीदों को यूं सिल नहीं पाते! तैयारी अब भी वही है, इंतजार की प्यास वही है, आस वही है, रास वही है, कोशिश का आकाश वही है! ये दुनिया रास्ते भटक गई है, नाप तोल में अटक गई है, संवेदनाएं मज़हब बन गई, इंसानियत फंदा लटक गई है!!

अतिका और रज़ाबन्दी!

हमारी दुआ के ज़रा करीब हो गए, हालात ऐसे अजीबोगरीब हो गए! मुल्क के अपने जो ग़रीब हो गए? दुनिया के थोड़े करीब हो गए! मिट्टी इंसानियत की मुबारक़ हो, नए आप के सब दस्तूर हो गए! सरहदें कसूर बनेंगी ये कब सोचा, वो ओर! जो लकीरों के फ़क़ीर हो गए! हार नहीं मानी, ये उनकी परेशानी है, जिद्द तो थी ही, थोड़े हम शरीर हो गए!! हालात-ए-अंजाम के नज़दीक थे, अपने खातिर हम बेपरवा हो गए! मुसीबत बड़ी, फिर भी काम हो गए, एक दूसरे को हम आसान हो गए! शिकन पेशानी के सब खत्म नहीं हैं, फिर भी चेहरे हमारे मुस्कान हो गए!! (Atiqa & Raza are Peace Activist and dear friends from across. They have been through very difficult times last 12 months. They are together and travelling. It is a blessing☺️)

मेहमान नवाज़ी!

उनकी दुआ में जिक्र हमारा था, खुदगर्ज़ जुबां से आमीन निकले! सरहदें जिनको ख़ामी नहीं करती, दोस्ती दिल से ओ दुआ आमीन निकले! अपनों की ये क्या शिकायत है, क्यों अज़ीज़ अजनबी निकले! न कोई गिला न शिकायत कोई, बड़े अपने, सब अजनबी निकले! हमसफ़र सब अजनबी थे, बड़े आसां ये सफर निकले! दिल जीत लिए,बड़े, शातिर मेहमाँ निकले! अज़ीज़ सारे इतेफ़ाक़ निकले दिलों के सब साफ़ निकले

लाहौर की ओर

सरहदों का काम रास्ते दिखाना है, रास्ते फ़क्त कमबख्त इन्सां आते हैं! जो सरहदें रोकती हैं वो इंसा को कम करती हैं, चलिए उस और भी कुछ नेक इरादे कर लें! मुसाफिर जब चलते हैं, रास्तों के दिल पिघलते हैं!  यूँ उम्र से कहाँ कोई जवान होता है वो जो आपके पैरों का निशाँ होता है! सरहद सीमा हो जाए तो मुश्किल होगी, हद हो गयी इंसाँ होने की तो क्या इंसाँ?? अपने इरादों से चलिए रुकिये, लकीरों के राम क्यों बनिये?    रास्ते चलते हैं और हम मुसाफिर, सर जो छत उसकी कोई जात नहीं ! आज इस ओर हैं कल उस ओर, जोर के इरादे, क्या इरादों का ज़ोर उम्र भर सफ़र है दो कदम और सही, यूँ भी इंसाँ हुआ करते हैं!  सरहदें ज़हन की दीवारें बनती हैं, वरना दो इंसाँ मुस्करा के बस मिलें! (लाहौर के सफ़र की तैयारी करते हुए साहिल पर मिले चंद ज़जबात)

नवीन मन, नव्य स्रजन

क्या बदलता है, समय के साथ, या समय के हाथ, हालात मुश्किलें,रास्ते,सोच, संभावनाएँ ,उम्मीदें ,आकांक्षाएं पहचान, और एक दिन कोई परिचित अजनबी, समय के दो ध्रुवॊ को एक लम्हा कर देता है, न पीछे मुडने की जरुरत न आगे बढने की चिंता, न कोई शुरुवात, न कोई अंत, जो मिले उसका भला, जो न मिले उसका भी भला, कितना नायाब है, रिश्तॊ में फकीरी का ये सिलसिला, हालत की अजनबियत ,  वक्त को बेदाग़ बना देती है, दिल साफ़ होते हैं , मैं, और मैं हो गया हूँ, तुम, और तुम हो गए हो, समय कितना भी बदले कभी बदला नहीं लेता, एक आज़ाद मुलाकात, उस मकाम पर, जहां किसी को, अपना रास्ता नहीं बदलना, न चाल चलनी है, अपेक्षा में TTMM(तेरा तू , मेरा मैं), अच्छा सौदा है! समय का गुलाम नहीं है,  अपनापन अच्छी मुलाक़ात रही, शुक्रिया! नविन मन, नव्या स्रजन (नवीन और नितिशा के साथ मुलाक़ात का विवरण)