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महिला दिवस - पुण्यतिथि या जयंति?

क्या आज सच में महिला दिन है? या बस एक पोस्टर कल जिसको बिन है? महिला दिवस है,  जन्म दिवस या पुण्यतिथि? बोलिए क्या है स्तिथि? ज़मीनी हालात?  ख़बर क्या है, नज़र क्या? एक दिन का असर क्या? 364 का सबर क्या?  और एक दिन ढल गया, एक दिन की बात थी, कल से, काल से  अब क्या सवाल करें?  नाउम्मीदी के तमाम ज़ख्म भरते नहीं, हालात आज भी सुधरते नहीं, औरत आज भी चीज़ है, नाचीज़, दरख़्त बने हुए मर्दानगी के बीज़! आज महिला दिन है, किस पर आपने फबती नहीं कसी? किस पर नज़र आज नहीं फेरी? किस धारणा को आज तज़ दिया? क्या सामने है जिसको सच किया? और अब कल? और परसों, फिर नरसों... तुम भी क्या याद रखोगी, आज महिला दिन है, और कुछ नहीं तो एक चिन्ह है? डूबते को तिनके का सहारा, सच को पर्दा,  आज औरत होने को डिस्काउंट है! कल से वही दुनिया कोई डाउट है?  इस दुनिया को बेहतर बनाएं चलो सब नामर्द बन जाएं!!

मैं ना मर्द!

 मैं एक का था और वो २५ की,  नज़दीकी मैंने तभी सीखी,  मैं पाँच का था और  वो उन्तीस की,  तब पता चला कि किसी को जीतने के लिये, किसी को हारना पड़ता है,  इंसान बनने की यही शुरुवात थी मैं पन्द्रह का था और वो अठाहरा की,  वो आगे रहती थी,  अपने यकीनों पर जीती थी मर्द नहीं बनने की मेरी यही शुरुवात थी मैं इक्कीस का था वो चौबीस की थी,  आंटा माड़ना, रोटी गोलना और  ज़िंदगी के पापड़ बेलना  तब मैनें देखा था,  काम का कोई लिंग नहीं होता,  ये समझ यकीन बनने की ये शुरुवात थी मैं तेईस का था और वो सब २०, २१, २२ की रोज की बातें, नये सच से मुलाकातें, होमोसेपियन से आगे जँहा और भी हैं,  कंधों को मिलाना मैंने यहीं सीखा था, ये मेरी नज़ाकत की शुरुवात थी मैं छब्बीस का था और वो चौबीस की,  उसको रोमांच था और मैं तो था ही,  मैं सोच था वो यकीन थी, जितनी ज़हीन उतनी हसीन, अपने आप में तय,   साथ से अलग, लिये अपने फ़लक, मेरी दुनिया की पहली औरत,  जिसे संपूर्ण होने के लिये मां ...