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अपवादी आवाज़ें

एक और अज़नबी रात सिरहाने खड़ी है, एक और नामुराद दिन मुंह बायें खड़ा है, ना कोई उम्मीद नाउम्मीद हुई है, ना कोई संजीदगी बेगुमां कोई तकलीफ़ अभी तक उदास है, प्यास अभी भी मायुस नही हुई, ना दर्द गुमराह हुए हैं एक हंसी है जो कंहीं अकेली पड़ी है, होँसले बेफ़िकरे खड़े हैं, रास्ते खुद को ही सब्र की दाद देते हैं और मोड़, बेचैनी में बढे हैं, कुलजमां सब वही है, क्या नया हो, जो कुछ गुजरा नहीं है, और क्या पुराना, पहचाने, सब अजनबी हैं कहने को कुछ नहीं है, गालिबन, जो लिखा वो सही है!