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पहचान - एक ज़ुबान

ज़िंदगी नाम है, या काम? संज्ञा, सर्वनाम? क्रिया, विशेषण? या ये सब तमाम? क्रिया बिन क्या नाम? नाम बिन कोई काम? काम कोई विशेष हो जो बन जाए सर्वनाम? या सर्वनाम काम है? जैसे उपनाम है, जन्म दर जन्म, आपको जकड़े हुए, जात, धर्म विशेषण, क्रिया एक शोषण? कुरीति, कुपोषण? और उन सबका क्या, जो बेनाम हैं, उनके लाखों काम हैं, न उनकी कोई संज्ञा, न कोई सर्वनाम है! भाषा से ही, भाषा में भी उनका काम तमाम है!

एक और अज्ञात!

अज्ञात है और मेरा मित्र भी, एक कोशिश है एक चित्र भी सामान्य है और विचित्र भी सीमित है पर सीमा नहीं जीवित हैं पर जीना नहीं सब कुछ ठीक है, और सब कुछ बदलना है रास्ता बना नहीं फिर भी चलना है, सपने हकीकत हैं, जो बोले शब्द वो जीवित हैं, अपनी ‘गति’ के समाचार, और खबर बुरी नहीं है, सच्चाई छुरी नहीं है, क्योंकि होता वही है जो तय है, और चाल आपकी, आपकी शय है, मात नज़र की कमजोरी है, उम्मीद कि न दिखे फिर भी डोरी है वैसे भी आँख के सामने गर अँधेरा है, तो हाथों को हवा कीजे, यकीन की दवा कीजे , और मारिये एक छलांग, जमीन से गिरे भी तो कहीं नहीं अटकते, एक दो तीन,...... धड़ाम देखा, न चींटी मरी, न आप , पर तबीयत हरी हो गयी! चलिए अब नए सिरे से सोचें बोलने वाले तो कुछ भी बोलेंगे!