हुई कि नहीं सुबह? दिन निकल आया रोशनी भी है पर ना सूरज है ना सुबह की चमक? हवा झकझोर रही है, बादल घनघोर रहे हैं, चाय का जायका वही है! पर असर अलग हो गया मौसम छुट्टी वाला है, पर यह कैसे समझे और किसे समझाएं? जुत गए हैं सुबह सब फिर से, कल को आज और आज को कल करने में! वही अपनी हाजिरी भरने में? बैल खेत जोत रही है, गधे घास चर रहे हैं, भेड़ चाल चल रही है, और हम इंसान सर्वोच्च प्राणी, आजाद, समझदार, चलिए जाने दीजिए देर हुई तो फिर ट्रैफिक में...
अकेले हर एक अधूरा।पूरा होने के लिए जुड़ना पड़ता है, और जुड़ने के लिए अपने अँधेरे और रोशनी बांटनी पड़ती है।कोई बात अनकही न रह जाये!और जब आप हर पल बदल रहे हैं तो कितनी बातें अनकही रह जायेंगी और आप अधूरे।बस ये मेरी छोटी सी आलसी कोशिश है अपना अधूरापन बांटने की, थोड़ा मैं पूरा होता हूँ थोड़ा आप भी हो जाइये।